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________________ चली जाती है। यह अनुभूति भावात्मक होती है और यह भावात्मक अनुभूति ही रहस्वाद का प्राण है। प्रात्मानुभव से साधक षड्-द्रव्यों के अस्तित्व पर भलीभांति चिन्तन करता है, श्रद्धा करता है, कर्म उपाधि से मुक्त हो जाता है, दुर्गति के विषाद से दूर हो जाता है तथा उसका चित्त समता, सुधा रस से भर जाता है। अनुभूति की दामिनी शील रूप शीतल समीर के भीतर से दमकती हुई सन्तापदायक भावों को वीरकर प्रगट होती है और सहज शाश्वत मानन्द की प्राप्ति का सन्मार्ग प्रदर्शित करती है। बतारसीदास के गुरु रूप पण्डित रूपचन्द का तो विश्वास है कि प्रात्मानुभव से सारा मोह रूप सथन अन्धेरा नष्ट हो जाता है । अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल जाता है, सत्तारूप अनुपम पद्मुत ज्ञेयाकार विकसित हो जाता है, मानन्द कन्द अमन्द अमूर्त प्रात्मा में मन बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य सुख वासे से प्रतीत होने लगती हैं। इसलिए वे अनादिकालीन अविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चाहते हैं ताकि चेतना का अनुभव घट घट में अभिव्यक्त हो सके। कविवर थानतराय प्रात्मविमोर होकर यही कह उठे-"प्रातम अनुभव करना रे भाई।" यह प्रात्मानुभव भेदविज्ञान के बिना सम्भव नहीं होता। नव पायों का ज्ञान, व्रत, तप, संयम का परिपालन तथा मिथ्यात्व का विनाश अपेक्षित है । भैया भगवतीदास ने अनुभव को शुद्ध-अशुद्ध रूप में विभाजित करके शुद्धानुभव को उपलब्ध करने के लिए निवेदन किया है। यह शुद्धानुभव राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व तथा पर पदार्थों की संगति को त्यागने, सत्यस्वरूप को धारण करने और मात्मा (हंस) के स्वत्व को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। इसमें वीतराग भक्ति, अप्रमाद, समाधि, विषयवासना मुक्ति, तथा षदव्य-ज्ञान का होना भी पावश्यक है' । शुद्धानुभवी साधक मात्मा के निरंजन स्वरूप को सदैव समीप रखता 1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कवि, पृ.5 2. बनारसी विलास, ज्ञानवावनी पृ. 6 3. वही परमार्थ हिन्डोलना, पृ.5 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 36-37 5. वही, पृ. 111 6. ब्रह्मविलास, भात प्रष्टोत्तरी, 98. 7. वही, 101
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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