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________________ 57. प्रकीर्णक काग्य में यहां हमने लाक्षणिक साहित्य, कोश, गजल, मुर्वावली आत्मकथा प्रादि विधानों को अन्तभूत किया है। इन विधानों की मोर इष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन कवि मात्र अध्यात्म और भक्ति की पोर ही माकषित नहीं हुए बल्कि उन्होंने छन्द, भलंकार, प्रात्मकथा, इतिहास मादि से सम्बद्ध साहित्य की सर्जना में भी अपनी प्रतिभा का उपयोग किया है। __ लाक्षणिक साहित्य में पिंगल शिरोमणि, छन्दोविद्या, छन्द मालिका, रसमंजरी, चतुरप्रिया, अनूपरसाल, रसमोह शृंडार, लखपति पिंगल, मालापिंगल, छन्दशतक, अलंकार आशय, प्रादि रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह मनस्तमितव्रत संधि, मदनयुद्ध, अनेकार्थ नाममाला, नाममाला, मात्मप्रवोधनाममाला, प्रर्धकथानक, अक्षरमाला, गोराबादल की बात, रामविनोद, वैद्यकसार, बचनकोष, चित्तौड़ की गजल, क्रियाकोश, रत्नपरीक्षा, शकुनपरीक्षा, रासविलास, लखपतमंजरी नाममाला, गुर्वावली, चत्य परिपाटी आदि रचनाएँ विविध विधामों को समेटे हुए हैं। इसी तरह कुछ हियाली संज्ञक रचनाएँ भी मिलती हैं जो प्रहेलिका के रूप मे लिखी गई है । बौद्धिक व्यायाम की दृष्टि से इनकी उपयोगिता निःसंदिग्ध है । मध्यकालीन जैनाचार्यों ने ऐसी अनेक समस्या मूलक रचनाएँ लिखी हैं । इन रचनामों में समयसुन्दर और धर्मसी की रचनाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त प्रकीर्णक काव्य में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने कहीं रस के सम्बन्ध में विचार किया है तो कहीं प्रलंकार पोर छन्द के, कहीं कोश लिखे हैं तो कहीं गुर्वावलियां, कहीं गजलें लिखी हैं तो कहीं ज्योतिष पर विचार किया है। यह सब उनकी प्रतिभा का परिणाम है। यहां हम उनमे से कतिपय उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। कविवर बनारसीदास ने काव्य रसों की संख्या 9 मानी है-भृगार, वीर, करुण, हास्य, रोद्र, वीभत्स, भयानक, अद्भुत और शान्त । इनमें शान्त रसको 'रसनिको नायक' कहा है। उसका निवास वैराग्य में बताया है-माया की मरुचिता में शान्त रस मानिये ।" उन्होंने इन रसों के पारमार्थिक स्थानों पर भी विचार किया है गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करूना समरस रीति, हास हिरदै उखाह सुख । बष्ट करम दल मलन, रुद्र बरत तिहि मानक । तन बिलेछ बीमत्छ दुन्द मुख वसा भयानक ॥ 1. नाटक समयसार, सर्वविशुविद्वार, 133-134.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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