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________________ 58 प्रत अनंत बल चितवन, सांत सहज वैराग व नवरसविलास पास तब, जब सुबोध घट, प्रगट हुव ॥ रस के समान प्रकार पर भी हिन्दी जैन कवियों ने विचार किया है। इस संदर्भ में कुंवरकुशल का लखपत जयसिंधु और ग्राम का कार माय मचरी उल्लेखनीय है। यहां रस, वस्तु और प्रबंकार को स्पष्ट किया गया है । अलंकार के कारण वस्तु का चित्रस्य रमणीय बनता है। उससे रस उपकृत होता है और भों की रमणीयता में निखार भाता है । छन्दोविधान की दृष्टि से भी हिन्दी जैन कवि स्मरणीय हैं। कविवर वृन्दावनदास ने प्रत्यन्त सरल भाषा में लघु-गुरु को पहचानने की प्रक्रिया बतायी है गुरु की पढ़ियो लघु को गुरु हूँ को लघु कहत हैं, समझत सुकवि सुचेत ॥ ठों गणों के नाम, स्वामी और फल का निरूपण कवि ने एक ही सर्वये में कर दिया है लघु की रेखा सरल है, इहि क्रम सौं गुरु-मधु परखि, कहूं कहूँ सुकवि प्रबन्ध महं, रेखा बंक | छन्द निशंक 11 गुरु कह देत । मगन तिगुरु मूलच्छि लहावत नगन तिलघु सुर शुभ फल देत । मगन जल शुद्धि करेत ॥ जगन रवि रोग निकेत । लघु नव शून्य समेत || मगन प्रादि गुरु इन्दु सुजस, लघु श्रादि रगन मध्य लघु, भगिन मृत्यु, गुरुमध्य सगत भन्त गुरु, वायु भ्रमन तगनत इसी प्रकार बनारसीदास की नाममाला, भगवतीदास की अनेकार्थ नाममाला भादि कोश ग्रन्थ भी उल्लेखनीय हैं। यह कोश साहित्य संस्कृत कोश साहित्य से प्रभावित है । इस प्रकार श्रादि-मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य की प्रवृत्तियों की घोर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि साधक कवियों ने साहित्य की किसी एक विघा को नहीं अपनाया, बल्कि लगभग सभी faurai में अपनी प्रतिभा को उन्मेषित किया है । यह साहित्य भाव, भाषा मौर अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी उच्चकोटिका है । यद्यपि कवियों का यहाँ आध्यात्मिक प्रथवा रहस्य भावनात्मक उद्देश्य मूलत: काम करता रहा पर उन्होंने किसी भी प्रकार से प्रवाह में गतिरोध नहीं होने दिया । रसचर्वणा, छन्द- वैविध्य, उपमादि अलंकार, श्रीजादि गुण स्वाभाविक रूप जे अभिव्यंजित हुए है । भाषादि भी कहीं बोझिल नहीं हो पाई। फलतः पाठक सरसता और स्वाभाविकता के प्रवाह में लगातार बहता रहता है और रहस्य भावना के मार्ग को प्रशस्त कर लेता है। अंतर कवियों की तुलना से भी यही बात स्पष्ट होती है । 1. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, पृ. 239. 2. वही ।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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