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________________ 250 है। इसी प्रकार मैया भवसीदास ने चेतन के धोषों को गिनाकर, उसे भगवान का भजन करने की बात कही है। इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन सन्तों में प्रपत्ति भावना के सभी अंग ... उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त श्रवण, कीर्तन, चितवन, सेवन, वन्दन, ध्यान, समता, समता, एकता, दास्यभाव, सख्यभाव प्रादि नवधाभक्ति तत्व भी मिलते हैं। इन नत्वों की एक प्राचीन लम्बी परम्परा है । वेदों, स्मृतियों सूत्रों, पागमों और पिटकों में इनका पर्याप्त विवेचन किया गया है। मध्यकालीन हिन्दी जैन और जैनेतर काय उनसे निःसन्देह प्रभावित दिखाई देते हैं । इन तस्वों में नामस्मरण विशेष उल्लेखनीय है । संसार सागर से पार होने के लिए साधकों ने इसका विशेष प्राश्रय लिया है। सूफियों का मार्फत और वैष्णवों का आत्म निवेदन दोनों एक ही मार्ग पर चलते है । श्रवण-कीर्तन आदि प्रकार भी सूफियो से शरीयत, तरीकत, हकीकत पौर मार्फत मादि जैसे तत्वों में नामान्तरित हुए हैं। सूफियों, वैष्णवो और जैनों ने मात्मसमर्पण को समान स्तर पर स्वीकारा है, सूफी साधना में इसी को जिक्र और फिक संज्ञा से अभिहित किया गया है । जायसी का विचार है कि प्रकट में तो साधक सांसारिक कार्य करता रहे पर मन ही मन आराध्य का ध्यान करते रहना चाहिए'परगट लोक चार कह बाता, गुपुत लाउ मन जासों राता। सुर के अनुसार महान् से महान् पापी भी हरि के नामस्मरण से भवसागर को पार कर लेता है-को को न तारयो लीला हरि नाक लिये । "हरि-गुण अवए से ही शश्वित सुख मिलता है, जो यह लीला सुने सुनाई सो हरि भक्ति पाइ सुख पावे दरिया ने नाम बिना भावकर्म का नष्ट होना असंभव-सा कहा है।" तुलसी ने भी नाम स्मरण की श्रेष्ठता दिग्दशित की है।' बनारसीदास ने जिन सहस्रनाम में और द्यानतराय ने चानत पद संग्रहमे इसकी विशेषता का वर्णन किया है। 1. भगवंत भजी सु तजो परमाद, समाधि के सग में रंग रहो। अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि, गहो निज शुद्धि ज्यों सक्ख लहो ।। तम ज्ञायक हो षट् द्रव्यन के, तिन सो हित जानि के पाप कहो।। ब्रह्मविलास, शतक प्रष्टोत्तरी, 12 पृ. 31. 2. भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 221-226. 3. जायसी अन्य माला 4. सूरसागर, पद 89 5. सरसागर 6. सन्तवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 153. 7. तुलसी रामायण, बाल काण्ड, 120.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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