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________________ 249 लैहु महावीर" कहकर और दौलतराम 'जाऊ' कहां तज धरम विहारी" कहकर इसी भाव की अभिव्यंजना की है । कार्पण्य-भक्ति के इस रंग में साधक अपनी दीनता व्यक्त करता है । कबीर ने 'जिहि घटि राम रहे भरपूरि, ताकी मैं चरनन की पूरि' तथा 'कबीरा कूता राम का मुतिया मेरा नाऊ" जैसे उद्धरणों में अपनी दीनता और विनय का प्रदर्शन किया है। तुलसी ने 'जाऊ' कहां तजि चरन तुम्हारे । काको नाम पतित पावन ? केहि अति दीन पियारे ?' मीरा भी 'अब मैं सरण तिहारों मोहि राखो कृपानिधान' कहकर अपनी किचनता व्यक्त करती है। जैन कवियों ने भी भक्ति के इस रंग को उसी रूप में स्वीकार किया है। जगतराम को प्रभु के बिना और दूसरा कोई सहायक नहीं दिखता। और दूसरे तो स्वार्थी हैं पर प्रभु उन्हें परमार्थी लगते हैं— प्रभु विन कोन हमारौ सहाई ॥ और सबै स्वारथ के साथी, तुम याते चरन सरन प्राये हैं, मन भूधरदास ने भी भगवान जिनेन्द्र को अरज सुनाई है कि तुम दीनदयालु हो और मैं संसारी दुखिया हूँ ।" इसी प्रकार की दीनता सूरदास के विनय के पदों में भी बिखरी दिखाई पड़ती है 1. 2. 3. 4. 5. 6. दीनता के साथ सभी भक्तों ने अपने दोषों और पश्चात्तापों का भी वर्णन किया है | भगवान दयालु है वह अपने भक्तों को दोष देते हुए भी भव समुद्र से पार लगा देंगे | तुलसीदास ने विनय पत्रिका मे 'माधव मो समान जग नाहीं । सब विधि हीन, मलीन, दीन प्रति, लीन विषय कोउ नाही ।। कहकर अपनी दीनता व्यक्त की 7. 8. परमारथ भाई ॥ परतीत उपाई ॥ अब लौ कहो, कौन दर जाऊ ? तुम जगपाल, चतुर चिन्तामनि, दीनबन्धु सुनि नाउ ॥ " वही, पृ. 101. वही, पृ. 216. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 26. विनय पत्रिका, 101. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 101. ग्रहो जगत गुरु देव, सुनियो परज हमारी। तुम हो दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ।। भूधरदास, जिनस्तुति, ज्ञानपीठ पूजाजली, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, छठा खण्ड, पहला पद्य, पृ. 522. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, 165 वां पद, पु. 54. विनय पत्रिका, 144 वां पद, पृ. 213.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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