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________________ 251 1 पादसेवन, बन्दन और प्रर्चन को भी इन कवियों ने अपने भावों में बा है । कबीर ने सेवा को ही हरिभक्ति मानी है जो सेवक सेवा करें तारे मुरारि सूरसागर का तो प्रथम पद ही चरण कमलों की वन्दना से प्रारम्भ किया गया है ।" मीरा ने भी भाई म्होगोविन्द गुन गास्था" कहकर 'भज मन चरण कमल प्रविनाशी' लिखा है ।' मानन्दवन प्रभु के चरणों में वैसे ही मन लगाना चाहते हैं जैसे गायों का मन सब जगह घूमते हुए भी उनके बछड़ों में लगा रहता है । अन्य कवि रूपवद, छत्रपति, बुधजन प्रादि ने अपने पदों में इन्हीं भावों को व्यक्त किया है। इस प्रकार प्रपस भावना मध्यकालीन हिन्दी जैन मौर जैवेतर काव्य में समान रूप से प्रवाहित होती रही है। उपालम्भ, पात्ताप, लघुता समता श्रीर एकता, जैसे तत्व भावभक्ति मे यथावत् उपलब्ध होते हैं। इन कवियों के पदों को तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक दूसरे से किसी सीमा तक प्रभावित रहे हैं । सहज योग साधना और समरसता योग साधना प्राध्यात्मिक रहस्य की उपलब्धि के लिए एक सरपेक्ष अंग है। सिन्धु घाटी के उत्खनन में प्राप्त योगी की मूर्तिया उसकी प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त हैं। ऋग्वेद ( 1 10.6) भोर यजुर्वेद (.12. 18) मे योग का विवरण मिलता है । योगसूत्र में योग के बाठ अंग बताये गये हैं-यम, नियम, प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि । चैन-बौद्ध धर्म मे भी योग का विवेचन मिलता है । साधारणतः योग का तात्पर्य है--योगचित्तवृत्तिनिरोधः प्रर्थात् मन-वचन काय को एकाग्र करना 18 उसका विशेष प्रर्थं है - पिंडस्य म्रात्मा का परमात्मा में अन्तर्भाव । उपर्युक्त भ्रष्टांग योग को स्पवहारतः 1. कबीर प्रथावली, पृ. 88 2. 3. 4. सूर और उनका साहित्य, पृ. 240. मीरा (काशी) पद 101. डाकोर पद 2. 5. मानन्दघन पद संग्रह, पद 96. पृ. 413. 6. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 33,258,195. 7. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ. 260-301. 8. पातंजल योग शास्त्र, 1-2. 9. हठयोग प्रदीपिका की भूमिका योगी श्रीनिवास पायंगार, पृ. 6
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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