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________________ मन चंचल मन अपल पति, मन बहु कर्म कमाय ॥ मन जीते बिन पातमा, मुक्ति कहो किम धाम 11211 मन सो जोषा जगत में, भौर दूसरो नाहिं ।। ताहि पछार सो सुभट, जीत लहै जग माहि ।।13।। मन इन्द्रिन को भूप है, ताहि करे जो जेर ॥ सौ सुख पावे मुक्ति के, या में कल न फेर ।।1411 जत तन मूछो ध्यान में, इद्रिय भई निराश ।। तब इह मातम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश 11511 कबीर के समान जगतराम भी मन को माया के वश मानते हैं और उ अनर्थ का कारण कहते हैं। जैन कवि ब्रह्मदीप ने मन को करम संबोधन करके उरं भव-वन में विचरण न करने को कहा है क्योंकि यहां अनेक विष वेलें लगी हुई। जिनको खाने से बहुत कष्ट होगा। मन करहा भव बनिमा परइ, तदि विष बेल्लरी बहुत । तहूं चरंतहं बहु दुखु पाइयउ, तब जानहि गौ मीत ।। 5. बागाडम्बर साधना के प्रान्तरिक और बाह्य स्वरूपों में से कभी कभी साधकों : बाह्याडम्बरों की ओर विशेष ध्यान दिया । ऐसी स्थिति में ज्ञानाराधना की अपेक्ष क्रियाकाण्ड प्रयवा कर्मकाण्ड की लोकप्रियता अधिक हुई। परन्तु वह साधना क वास्तविक स्वरूप नहीं था। जिन साधकों ने उसके वास्तविक स्वरूप को समझ उन्होंने मुण्डन, तीर्थस्थान, यज्ञ, पूजा, प्रादि बाह्य क्रियाकाण्डों का धनघोर विरो किया । यह क्रियाकोड साधारणतः वैदिक संस्कृति का मंग बन चुका था। जैनाचार्य योगीन्दु ने ज्ञान के बिना तीर्थस्थान को बिल्कुल निरर्षक बताय है। सुनि रामसिह ने भी उससे प्राभ्यंतर मल घुलना असभव माना है । 1. ब्रह्मविलास, मनवत्तीसी, पृ. 262, 2 मनकरहारास, I, आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित स तुलनार्थ दृष्टव्य-जनशतक, भूधरदास, 67 पृ. 26. 3. तिस्थई तित्यु भमताहं मूढहं मोक्स ण होइ । याण विवजिउ जेग जिय मुणिवरु होइ प सोई 1581 परमात्मप्रकाश, द्वि. महा0, पृ. 227. 4. पतिय पाणिड दम्ब तिल सम्वहं जाणि सवण्णु । ज पुणु मोक्सहं जाइबउ तं कारणु कुइ प्राणु ।।-पाहुडदोहा, 159.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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