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________________ 226 प्राचार्य कुन्दकुन्द से भलीभांति प्रभावित रहे हैं। सिद्ध सरहपाद ने भी तीर्थस्थान प्रादि बाह्याचार का खण्डन कर अचेलावस्था पिच्छि, केशलु बन प्रादि क्रियाओं की निम्न प्रकार से मालोचना की है कबीर ने भी धार्मिक ग्रन्धविश्वासों, पाखण्डी और बाह्याडम्बरों के विरोध में तीक्ष्ण व्यंग्योक्तियां कसी हैं। मात्र मूर्तिपूजा करने वालों और मूड़ मुड़ाने वालों के ऊपर कटु प्रहार किया है। कबीर का विचार है कि इनसे बाह्याचारों के ग्रहण करने की प्रवृत्ति तो बनी रहती है परन्तु मन निर्विकार नहीं होता इसलिए हाथ की माला को त्यागकर कवि ने मन को वश में करने का आग्रह किया है । 5 जोगी खंड में बाह्याचार विरोध की हल्की भावना जायसी में भी मिलती है जब रत्नसेन ज्योतिषी के कहने पर उत्तर देता है कि प्रेम मार्ग में दिन, घडी आदि बाह्याचार पर दृष्टि नही रखी जाती । प्रन्यत्र स्थलों पर भी उन्होंने झकझोर देने वाले करारे व्यंग्य किये हैं । नग्न रहने से ही यदि योग होता है तो मृग को भी मुक्ति मिल 1. 2. 3. 4. 5. यदि नंगाये होड़ मुक्ति तो शुनक श्रृगालहु । लोम उपाटे होइ सिद्धि तो युवति नितम्बहु || पिछि गहे देखेउ जो मोक्ष तो मोर चमरहुं । उम्छ- भोजने होइ ज्ञान तो करिहुं तुरंगहु | भावइ । सरह मने क्षपण की मोक्ष, मोहि तनिक न तत्त्व रहित काया न ताप पर केवल साधइ || 6. मोक्खपाड़, 61; भावपाहुड़ 2. हिन्दी काव्यधारा - सं. राहुल सांकृत्यायन, पाखण्ड-खण्डन (छाया) पृ. 5, तुलनार्थ दृष्टव्य है - ब्रह्मविलास, शतमष्टोत्तरी, 11 पृ. 10. पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार । तात चाकी भली पीसि खाय ससार ॥ संतवाणी संग्रह, भाग-1, पृ. 62. मूड मुड़ाये हरि मिलें सब कोई लेय मुड़ाय । बार-बार के मूड़ते मेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ माला फेरत जुग गया, पाय न मन का फेर । करका मनका छोड दे मनका मनका फेर || कबीर ग्रन्थावली, पृ. 45. जायसी का पद्मावत ---डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, पृ. 157.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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