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________________ 224 जाती है । मन द्वारा मन के समझाने पर चरम सत्य की उपलब्धि हो जाती है ।" चंचल चित्त को निश्चल करने पर ही राम-रसायन का पान किया जा सकता है' यह काचा खेल न होई जन घटतर खेले कोई । fan चंबल निश्चल कीजे, तब राम रसायन पीजे ॥ 2 एक अन्यत्र पद में कबीर मन को संबोधित करते हुए कहते हैं है मन ! तू क्यों ar भ्रमण करता फिरता है ? तू विषयानन्दों में संलिप्त है किन्तु फिर भी तुझे सन्तोष नहीं । तृष्णाओं के पीछे बावला बना हुम्रा फिरता है । मनुष्य जहां भी पग बढ़ाता है उसे माया-मोह का बन्धन जकड़ लेता है । म्रात्मा रूपी स्वच्छ स्वर्ण थाली को उसने पापों से कलुषित कर दिया है। ठीक इसी प्रकार की विश्वार- सरणी बनारसीदास ' और बुधजन जैसे जैन साधकों ने भी अभिव्यक्त की है । मैया भगवती दास ने कबीर के समान ही मन की शक्ति को पहिचाना और उसे शब्दों में इस प्रकार गूंथने का प्रयत्न किया Б 1. 2. 3. 4. 5. मन बली न दूसरो, देख्यौ इहि संसार || तीन लोक में फिरत ही जातन लागे बार ||8|| मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ॥ मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ॥ ॥ मन राजा की सेन सब इन्द्रिन उमराव ॥ रात दिना दौरत फिरं, करे अनेक अन्याव ॥10॥ इन्द्रिय से उमराव सिंह, विषय देश विश्चरंत ॥ या तिह मन भूप को, को जीते विन संत ॥ 11 ॥ कबीर ग्रन्थावली, पृ. 146. वही, पृ. 146. काहै रे मन वह दिसि घावं, विषिया संगि संतोष न पावे ।। जहां जहां कल तहां तहां बंधनो, रतन को थाल कियौ ते रंधनां । कबीर ग्रंथावली, पद 87, पृ. 343. रे मन ! कर सदा सन्तोष, बढ़त परिग्रह मोह बाढत, अधिक तृषना होति । बहुत ईंधन जरत जैसे, प्रगनि ऊंची जोति ॥ बनारसीदास, हिन्दी पद संग्रह पृ. 65. मेरे मन तिरपत क्यों नहि होय, अनादिकाल ते विषयनराच्यो, अपना सरबत खोय ।। बुधजन, वही, पृ. 197
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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