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________________ 196 है । राजुल भात्मा का प्रतीक है और नेमिनाथ परमात्मा का । राजुल रूप धारमा नेमिनाथ रूप परमात्मा से मिलने के लिए कितनी धातुर है यह देखते ही बनता है । यहाँ कवियों में कबीर और जायसी एवं मीरा से कहीं अधिक भावोदवेग दिखाई देता है । संयोग और वियोग दोनों के चित्ररण भी बड़े मनोहर और सरस हैं । भट्टारक रत्नकीर्ति की राजुल से नेमिनाथ विरक्त होकर किस प्रकार गिरिनार चले जाते हैं, यह श्राश्चर्य का विषय है उन्हें तो नेमिनाथ पर तन्त्र-मन्त्र मोहन को प्रभाव लगता है—''उन पे तंत मंत मोहन है, वैसो नेम हमारी ।" सच तो यह है कि "कारण कोउ पिया को न जाने ।" पिया 'विरह से राजुल का संताप बढ़ता चला जाता है और एक समय आता है जब वह अपनी सखी से कहने लगती है"सखी री नेम न जानी पीर' 'सखी को मिलावो नेम नरिन्दा', 'सखी री सावनि घटाई सतावे | " भट्टारक कुमुदचन्द्र और अधिक भावुक दिखाई देते हैं । प्रसह्य विरह-वेदना से सन्तप्त होकर वे कह उठते है- सखी री अब तो रह्यो नही जात 12 हेमविजय की राजुल भी प्रिय के वियोग में अकेली चल पडती है उसे लोक मर्यादा का बंधन तोडना पड़ता है । घनघोर घटायें छायी हुई हैं, चारों तरफ बिजली चमक रही है, पिउरे पिउ रे की आवाज पपीहा कर रहा है, मोरें कंगारों पर बैठकर अवाजें कर रही हैं । श्राकाश से दू दें टपक रही हैं, राजुल के नेत्रों से प्रांसुनों की झड़ी लग जाती है । " भूधरदास की राजुल को तो चारों और अपने प्रिय के बिना अंधेरा दिखाई देता है । उनके बिना उसका हृदय रूपी धरविन्द मुरझाया पड़ा है। इस वेदना को वह अपनी मां से भी व्यक्त कर देती है, सखी तो ठीक ही है- "बिन पिय देखें मुरझाय रह्ययो है, उर अरविन्द हमागे री ॥ राजुल के विरह की स्वाभाविकता वहां और अधिक दिखाई देती है जहां वह अपनी सखी से कह उठती है - "तहाँ ले चल री जहाँ 1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 3-5. 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 16, जिनहर्ष का नेमि राजीमती बार समास सवैया 1. जैन गुर्जर कवियों, खंड 2, भाग, पृ. 1180; विनोदीलाल का नेमि राजुल बारहमासा, बारहमासा संग्रह, जैन पुस्तक भवन कलकत्ता, तुलनार्थ देखिये । 3. नेमिनाथ के पद, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 157; लक्ष्मी बालम का भी वियोग वर्णन देखिये जहाँ साधक की परमात्मा के प्रति दाम्पत्यमूलक रति दिखाई देती है, वही, नेमिराजुल बारहमासा, 14, पृ. 309. भूधर विलास, 13, पृ. 8. 4.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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