SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 195 पत्नी सुमति पति बेतन के वियोग में जल 'विन मीन के समान तड़पती है (वही, अध्यात्म गीत पृ. 159-60) और ऐसे मग्न होना चाहती है जैसे दरिया में दूद समा जाती है। अपने ही अथक प्रयत्नों से बह पन्ततः प्रिय चेतन को पाने में सफल हो जाती है-पिय मेरे घट में पिय माहि जलतरंग ज्यों दुविषा नाही (वही पृ. 161)। इसलिए वह कह उठती है-देखो मेरी सखिन ये माज चेतन घर मावे । (ब्रह्मविलास पद 14) । सतगुरु ने कृपा कर इस विछुरे कंत को सुमति. से मिला दिया (हिन्दी पद संग्रह, पद 379)। साधक की प्रात्मा रूप सुमति के पास परमात्मा स्वयं ही पहुंच जाते हैं क्योकि वह प्रिय के विरह में बहुत क्षीण काय हो गई थी। विरह के कारण उसकी देचैनी तथा मिलने के लिए आतुरता बढ़ती ही गई । उसका प्रेम सच्चा था इसलिए भटका हुआ पति स्वयं वापिस पा गया। उसके आते ही सुमति के खंजन जैसे नेत्रों में खुशी छा गया। और वह अपने चपल नयनों को स्थिर करके प्रियतम के सौन्दर्य को निरखती रह गयी । मधुर गीतों की ध्वनि से प्रकृति भर गयी । अन्त: का भय मोर पाप रूपी मल न जाने कहाँ विलीन हो गये क्योंकि उसका परमात्मा जैसा साजन साधारण नहीं । वह तो कामदेव जैसा सुन्दर और अमृत रस जैसा मधुर है । वह अन्य बाह्य क्रियायें करने से प्राप्त नहीं होता । बनारसीदास कहते हैं वह तो समस्त कर्मों का क्षय करने से मिलता है । म्हारे प्रगटे देव निरंजन ।। प्रटको कहां-कहां सिर भटकत कहा कहूं जन-रंजन म्हारे. ॥1॥ खंजन दृग, दृग नयनन गाऊ वाऊ चितवत रंजन । सजन घर अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ॥ म्हारे. ।। वो ही कामदेव होय, कामघट वो ही मंजन । और उपाय न मिले बनारसो सकल करम पय खंजन ।। म्हारे. ।।। भूधरदास की सुमति अपनी विरह-व्यथा का कारण कुमति को मानती है पौर इसलिए उसे "जह्यो नाश कुमति कुलटा को, बिरमायो पति प्यारो" (भूधरविलास, पद 29) जैसे दुर्वचन कहकर अपना दुःख व्यक्त करती है तथा पाशा करती है कि एक न एक दिन काल लब्धि प्रायेगी जब उसका चेतनराव पति दुरमति का साथ छोड़कर घर वापिस भायेगी (वही, पद 69)। जैन साधकों एवं कवियों ने रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का उद्घाटन करने के लिए राजुल भोर तीपंकर नेमिनाथ के परिणय कथानक को विशेष रूप से चुना 1. बनारसीविलास, पृ. 241.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy