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________________ 197 जादोपति प्यारो | "नमि बिना न रहे मेरी जियरा," मां विलंवन लाव पठाव तहां दी जहाँ जगपति पिय प्यारौ' ? जगतराम ने "सखी री विन देखे रायो न जाय" श्रौर द्यानतराय ने 'तैं देखे नेमिकुमार" कहकर राजुल की प्रांतरिक वेदना मे समरसता का सिंचन कर दिया । उनकी राजुल अपनी सखि से नेमिनाथ के साथ मिलाने का आग्रह करती हैएरी सखि नेमिजी को मोहि मिलावो " और कहती है---"सुनरी सखि, जहाँ नेमि गये तहां मो कहँ ले पहुंचावो री हां" (द्यानत पद संग्रह, 208 ) । पर उसे जब यह समझ में आ जाता है कि नेमिनाथ तो वैरागी हैं मुक्ति गामी हैं, तो वह कहने लगती है कि उनसे मिलना तभी सम्भव है जब वह भी वैरागिन हो जाय --- पिय वैराग्य लियो है किस मिस देखन जाऊँ । व्याहन श्राये पशु छुटकाये तजि रथ जनपुर गाऊँ ।। मैं सिंगारी वे अविकारी ज्यो नम मुठिय समाऊँ । द्यानत जो गिनि हवे विरमाऊँ कृपा करें निज ठाऊँ || (वही, पद 191) इस सन्दर्भ में पंच सहेली गीत का उल्लेख करना श्रावश्यक है जिसमें बीहल ने मालिन, तम्बोलनी, छीपनी, कलालनी और सुनारिन नामक पांच सहेलियों को पांच जीवों के रूप में व्यजित किया है । पाचों जीव रूप सहेलियों ने अपने-अपने प्रिय ( परमात्मा) का विरह वर्णन किया है। जब उन्हें ब्रह्मरूप पति की प्राप्ति नहीं हो पाती है तो वे उसके विरह से पीड़ित हो जाती हैं। कुछ दिनों के बाद प्रिय (ब्रह्म) मिल जाता है। उससे उन्हे परम आनन्द की प्राप्ति होती है । उनका प्रिय मिलन ब्रह्म मिलन ही है । पति के मिलन होने पर उनकी सभी श्राशाएं पूर्ण हो गयीं । पति के साथ समत्व प्रालिंगन साधक जीव जब ब्रह्म से मिलता है तो एकाकार हुए बिना नहीं रहता । इसी को परममुख की प्राप्ति कहते है । ब्रह्म मिलन का चित्ररण दृष्टव्य है : काढया गात्र अपार । चोली खोल तम्बोलनी रंग कीया बहु प्रीयसु नयन मिलाई तार || भैया भगवतीदास का 'लाल' उनसे कहीं दूर चला गया इसलिए उसको पुकारते हुए वे कहते हैं-हे लाल, तुम किसके साथ घूम रहे हो ? तुम अपने ज्ञान के महल में क्यों नहीं आते ? तुमने अपने अन्तर में झांक कर कभी नहीं देखा कि वहाँ दया, क्षमा, समता और शांति जैसी सुन्दर नारियाँ तुम्हारे लिए खड़ी हुई हैं। वे धनुपम रूप सम्पन्न हैं । 1. 2. वही, 45, पृ. 25; पद 13. पंचसहेली गीत, लुणकरजी पाण्डया मन्दिर, जयपुर के गुटका नं. 144 में अंकित है; हिम्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 101-103.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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