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________________ 184 तकसीर मेरी माफ करिये' कहकर मिथ्यात्व कोध-मान माया लोभ इत्यादि विकार भावों के कारण किये गये कर्मों की भत्सना करते हैं और प्राराध्य से भवसागर पार कराने की प्रार्थना करते है 1--"प्रभु बूक तकसीर मेरी माफ करिये।" साधक पश्चात्ताप के साथ भक्ति के वश पाराध्य को उपालम्भ देता है कि 'जो तुम दीनदयाल कहावत । हमसे मनाथनि हीन दीन कू काहे न नाथ निवाजत ।' प्रभु, तुम्हें प्रनेक विधानों से घिरे सेवक के प्रति मौन धारण नहीं करना चाहिए । तुम विधनहारक, कृपा सिन्धु जैसे विरुदों को धारण करते हो तब उनका पूरा निर्वाह करना चाहिए। द्यानतराय उपालम्भ देते हुए कुछ मुखर हो उठते हैं। और कह देते हैं कि पाप स्वयं तो मुक्ति में जाकर बैठ गये पर मैं अभी भी संसार में भटक रहा हूं। तुम्हारा नाम हमेशा मैं जपता हूँ पर मुझे उससे कुछ मिलता नहीं । और कुछ नहीं, तो कम से कम राग-द्वेष को तो दूर कर ही दीजिए-- तुम प्रभु कहियत दीनदयाल । प्रापन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ॥11 तुमरो नाम जपं हम नीके, मनवच तीनों काल ।। तुम तो हमको कछु देत नहिं, हमरो कौन हवाल ॥2॥ बुरे भले हम भगत तिहारे जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग-दोष को टाल ॥31॥ हम सौ चूक परी सो वकसो, तुम तो कृपा विशाल । धानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल 14113 एक अन्यत्र स्थान पर कवि का उपालम्भ देखिये वह उद्धार किये गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि मेरे लिए माप इतना विलम्ब क्यों कर रहे है। मेरी बेर कहा ढील करी जी। सूली सो सिंहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ।। 1. वही, पृ. 181-92. 2. प्रमु मेरे तुमकू ऐसी न चाहिए सधन विधन घेरत सेवक कु, मौन धरी किऊं रहिये ॥1॥ विधन हरन सुखकरन सबनिकुचित चिन्तामनि कहिये । प्रसरण शरण प्रबंधुबंधु कृपासिन्धु को विरद निबहिये । हिन्दी पद सग्रह, भ. कुमुदचन्द्र, पृ. 14, लूणकरणजी पाण्डया मन्दिर, जयपुर के गुटक नं. 114 मे सुरक्षित पद । 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114-15.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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