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________________ जाके मुख दरसों भगत के नैननिकों, थिरता की बानि बढे चंचलता विमसी । मुद्रा देखि केवली की मुद्रा याद मावं जहां, जाके धागे इन्द्र ही विभूति दीसं तिनसी || जाको जस जपत प्रकाश जगे हिरदे में, सोइ सुद्धमति होई हुती जु मलिन सी । कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सो है जिनकी छवि सुविद्यमान जिनसी || कविवर दौलतराम ने जिन दर्शन करके भरपूर सुख पाया 'निरखत सुख पायौ, जिन मुखचन्द' | उन्हें जिन छवि त्रिभुवन मानन्दकारिणी भोर जगतारिणी प्रतीत हुई है । 2 बुषजन के नयन नाभिकुद्मर दर्शन करते ही सफल हो गये'तिरखे नाभिकुरजी, मेरे नैन सफल भये ।' जिनेन्द्र के दर्शन करते ही उनका मिध्यातम भाग गया, अनादिकालीन संताप मिट गया धीर निजानुभव पाकर अनन्त हर्ष पा लिया- लखे जी प्रज चन्द जिनन्द प्रभु को मिध्यातम मम भागौ ॥ टेक ॥ श्रनादिकाल की तपत मिटी सब, सूतो जियरी जागौ ॥1॥ निज संपति निज ही में पाई, तब निज अनुभव लागौ । बुधजन हरषत श्रानन्द वरषत, अमृत भर मैं पागो ||2|| 3 1. 2. 3. 4. 183 भक्त कवि प्राराध्य का दर्शन कर भक्तिवशात् उनके समक्ष अपने पूर्वकृत कर्मों का पश्चात्ताप करता है जिससे उसका मन हल्का होकर भक्ति भाव में और afte लीन हो जाता है । भट्टारक कुमुदचन्द्र 'मैं तो नरभव बाधि गवायो । न कियो जपतप व्रत विधि सुन्दर, काम भलो न कमायो ।' तथा " चेतन चेतत क्यूं बावरे । विषय विषे लपटाय रहियो कहा, दिन दिन छीजत जात प्रापरे' जैसे पद्यों में अपना भक्ति-सिक्त पश्चाताप व्यक्त करते हैं । " रूपचन्द 'जनमु प्रकारथ ही जु गयी ॥ धरम अकारथ काम पद तीनो, एकोकरि न लयो । यानतरण्य तो 'कबहू' न निज वर माये || परवर फिरत बहुत दिन बीते नांव अनेक धराये ॥ '6 व नवलराम 'प्रभु चूक नाटक समयसार, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, पृ. 365. दौलत जैन पद संग्रह, 43, 111, 112 वें पथ. बुधजन विलास, 117, पृ. 60. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 14 और 20. 5. वही, पृ. 40. 6. वही, पृ. 109.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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