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________________ सीता सती प्रगति में बैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पे खडक चलायो, फूलमाल कीनी सुथरी जी ॥ धन्या वाणी परलो निकाल्यौ ता घर रिद्ध अनेक भरी जी । सिरीपाल सागर तैं तारयो, राजभोग के सांप किय फूलन की माला, सोमा पर 'द्यानत' में कुछ जांचत नाहीं, कर वैराग्य दशा हमरी जी 11 मुकति वरी जी ।। तुम दया घरी जी । 185 दौलतराम भी इस प्रकार उपालम्भ देते है और प्रबगुरणों की क्षमा याचना कर धाराध्य से दुःख दूर करने की प्रार्थना करते हैं नाथ मोहि तारत क्यों ना, क्या तकसीर हमारी ॥ अंजन चोर महा मध करता सप्त विसन का बारी । वो ही मर सुरलोक गयो है, बाकी कछु न विचारी ॥1॥ शूकर सिंह नकुल वानर से, कौन-कौन व्रत धारी । तिनकी करनी कछु न बिचारी, वे भी भये सुर भारी ||2|| प्रष्ट कर्म बैरी पुरुब के, इन मो करी खुवारी । दर्शन ज्ञान रतन हर लीने, दोने महादुख भारी ॥3॥ गुण माफ करे प्रभु सबके, सबकी सुधि न विसारी । दौलतराम खड़ा कर जोरे, तुम दाता में भिखारी 114 11 2 इस प्रकार प्रपत्तभावना के सहारे साधक अपने आराध्य परमात्मा के सान्निध्य मे पहुंचकर तत्तत् गुणो को स्वात्मा में उतारने का प्रयत्न करता है । प्रपत्ति मे श्रद्धा और प्रेम की विशुद्ध भावना का अतिरेक होने के फलस्वरूप साधक अपने आराध्य के रंग में रंगने लगता है । तद्रूप हो जाने पर उसका दुविधा भाव समाप्त हो जाता है घोर समरसभाव का प्रादुर्भाव हो जाता है । यही सांसारिक दुःखों से त्रस्त जीव शाश्वत शांति की प्राप्ति कर लेता है और वीतरागता शुक्लध्यान के रूप में स्फुरित हो जाती है। मध्यकालीन हिन्दी जैन भक्तो की भावाभिव्यक्ति में इसी प्रकार की शान्ता भक्ति का प्राधान्य रहा है । 2. सहज - साधना प्रौर समरसता योग साधना भारतीय साधनाओं का अभिल प्रांग है। इसमें साधारणतः मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया का समावेश किया गया है। उत्तर काल में यह 1. धर्मविलास, 54वां पद्म । 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 216 - 7. खुशालचन्द काला भी इसी प्रकार उलाहना देते हुए भक्ति व्यक्त करते हैं- 'तुम प्रभु प्रथम प्रनेक उधारं ढील कहा हम बारो जी ।'
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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