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________________ 146 शुद्ध चिदानन्दरूप अपना भाव ही शान है उसी से माया-मोहावि दूर हो जाते . हैं और सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द, चीततो मूको माया मोह गेह देखिए ।। मात्मा का मूल गुण ज्ञान है । वह कर्मों के प्रभाव से प्रच्छन्न भले ही हो जाये पर सुप्त नहीं होता। जिस प्रकार सुवर्ण कुधातु के संयोग से अग्नि में अनेक रूप धारण करता है फिर भी वह अपने स्वर्णत्व की नहीं छोड़ता। जीव की यह शुद्धावस्था चैतन्य रूप है, अनन्त गुण, अनंत पर्याय और अनंत शक्ति सहित है प्रमूर्तिक है, शिव है, अखंडित है, सर्वव्यापी है । बनारसीदास के नाम पर पीताम्बर द्वारा लिखी ज्ञानवावनी में जीव के स्वरूप को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है । उसके अनुसार जीव शुद्ध नय से शुद्ध, सिद्ध, ज्ञायक प्रादि रूप है । परन्तु कर्मादि के कारण वह उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता । यहीं चिदानन्द को राजा मानकर कर्म पुद्गलों से उसका संघर्ष भी बताया है । साथ ही चेरी, सेना, परमार्थ, प्रपंच, चौपट प्रादि रूपकों के माध्यम से उसके बाह्म स्वरूप को स्पष्ट किया है। बनारसीदास ने जीव के शुद्ध स्वरूप को शिव और ब्रह्म समाधि माना तथा शरीर में उसके निवास को उसी प्रकार बताया जिस प्रकार फल-फूलादि में सुगन्ध, दही-दूध आदि में घी, काठ पाषाणदि में पावक । इसी प्रकार का कथन मुनि महनन्दि का भी है-वे कहते हैं कि जिस प्रकार दूध में घी, तिल से तेल तथा लकड़ी में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में प्रात्मा निवास करती है : तत्वसार दूहा-भट्टारक शुभचन्द्र, 91; हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 78. 2. नाटक समयसार, जीवद्वार, 9. नाटक समयसार, उत्थानिका, 20. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 4. वही, 16-30. वही, ध्यानवत्तीसी, 1. चेतन पुद्गल सौ मिलें, ज्यों तिल में खलि तेल । प्रगट एक से देखिये, यह अनादि को खेल 11411 ज्यों सुवास फल फूल में, दही दूध में घीव । पावर काठ पाषाण में, त्यों शरीर में जीव ।17। वही. मध्यात्मबत्तीसी 4-7, पृ. 143.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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