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________________ वीरह मह जैम घिउ, तिलह मंकि जिन तिलु । ries arer जिम वसई, तिस देहहि देहिल्लु ॥ 1. 2. बनारसीदास ने प्रात्मा और शिव को सांगरूपक में प्रस्तुत कर शिव समूचे गुण सिद्ध में घटाये हैं। शिव को उन्होंने ब्रह्म, सिद्ध भौर भगवान भी कहा है । समूची शिवपच्चसी में उनके इस सिद्धान्त की मार्मिक व्याख्या उपलब्ध है । तदनुसार जीव और शिव दोनों एक हैं । व्यवहारतः वह जीव है औौर निश्चय नय से वह शिव रूप है । जीव शिव की पूजा करता है और बाद में शिव रूप को प्राप्त करता है । कवि ने यहां निर्गुण और सगुण दोनों भक्ति धाराओं को एकस्व में समाहित करने का प्रत्यन किया है । जीव शिव रूप जिनेन्द्र की पूजा साध्य की प्राप्ति के लिए करता है । बनारसीदास ने अपनी प्रखर प्रतिमा से उसी शिव को सिद्ध में प्रस्थापित कर दिया है । तनमंडप रूप वेदी है उस पर शुभलेश्या रूप सफेदी है । प्रात्म रुचि रूप कुण्डली बनी है, सद्गुरु की वाणी जल-लहरी है उसके सबुत स्वरूप की पूजा होती है । समरस रूप जल का अभिषेक होता है, उपशम रूप रस का चन्दन घिसा जाता है, सहजानन्द रूप पुष्प की उत्पत्ति होती है, गुण गभित 'जयमाल' चढ़ायी जाती है । ज्ञान दीप की शिखा प्रज्ज्वलित हो उठती है, स्याद्वाद का घंटा झंकारता है, अगम अध्यात्म चवर डुलाते हैं, क्षायक रूप धूप का दहन होता है । दान की अर्थ-विधि, सहजशील गुरण का प्रक्षत, तप का नेवज, विमलभाव का फल आगे रखकर जीव शिव की पूजा करता है और प्रवीण साधक फलतः शिवस्वरूप हो जाता है । जिनेन्द्र की कठरणारस वाणी सुरसरिता है, सुमति प्रषगिनी गोरी है, त्रिगुरणभेद नयन विशेष है, विमलभाव समकित शशि-लेखा है । गुरु-शिक्षा उर मे बंधे श्रृंग हैं । नय व्यवहार कंधे पर रखा बाघाम्बर है। विवेकबैल, शक्ति विभूति मंगच्छवि है । त्रिगुप्ति त्रिशूल है, कंठ में विभावरूप विषय विष हैं, महादिगम्बर योगी भेष है, ब्रह्म समाधि छपन घर है अनाहद रूप डमरू बजता है पंच भेद शुभज्ञान है और ग्यारह प्रतिमायें ग्यारह रुद्र हैं । यह शिव मंगल कारण होने से मोक्ष-पथ देने वाले हैं। इसी को शंकर कहा गया है, यही अक्षय निषि स्वामी, सर्वजग अन्तर्यामी और आदिनाथ हैं । त्रिभुवनों का त्याग कर शिववासी होने से त्रिपुर हरण कहलाये । म्रष्ट कर्मों से अकेले संघर्ष करने के कारण महारा हुए । मनोकामना का दहन करने से कामदहन कर्ता हुए । संसारी उन्हीं को महादेव, भु, मोहहारी हर मादि नाम से पुकारते हैं । यही शिवरूप शुद्धात्मा सिद्ध, नित्य मौर निर्विकार है, उत्कृष्ट सुख का स्थान है । साहजिक शान्ति से सर्वांग सुन्दर है, 147 राजस्थानी जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. 174. बनारसीविलास, शिवपच्चीसी 1-24.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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