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________________ 145 की free - भिन्न पर्यायों में भ्रमण करने वाला सकर्म जीव संसारी कहलाता है और जब वह अपने कर्मों से विमुक्त हो जाता है तो उसे मुक्त कहा जाता । जीव की इन दोनों पर्यायों कों क्रमशः प्रात्मा और परमात्मा भी कहा गया है । सामान्यतः जीव के लिए चिदानन्द, चेतन, अलक्ष, जीव, समयसार, बुद्धरूप, भबद्ध, उपयोगी, चिद्रूप, स्वयंभू, चिन्मूर्ति, धर्मवन्त, प्राणवन्त, प्राणी, जन्तु, भूत, भवभोगी, गुणवारी, कुलाधारी, भेषधारी, अंगधारी, संगधारी, योगधारी, योगी, चिन्मय, प्रखण्ड, हंस, अक्षर, आत्माराम, कर्म कर्ता, परमवियोगी प्रादि नामों का प्रयोग किया जाता है। और परमात्मा के लिए परमपुरुष, परमेश्वर, परमज्योति, परब्रह्म, पूर्ण, परम, प्रधान, अनादि, अनन्त, धव्यक्त, अविनाशी, भज, निर्द्वन्द, मुक्त, मुकुन्द, प्रम्लान, निराबाध, निगम, निरंजन, निर्विकार, निराकार, संसार - शिरोमणि, सुज्ञान, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ, सिद्ध, स्वामी शिव, धनी, नाथ, ईश, जगदीश, भगवान आदि नाम दिये जाते हैं । ' महात्मा श्रानन्दधन पौराणिक शब्दों और प्रथों को छोड़कर प्रात्मा के राम प्रादि नये शब्द और उनके नये प्रर्थं दिये हैं । 'राम' वह है जो निज पद में रमे 'रहीम' वह है जो दूसरों पर रहम करे, 'कृष्ण' वह है जो कर्मों का क्षय करे, 'महादेव' वह है जो निर्वाण प्राप्त करे, 'पार्श्व' वह है जो शुद्ध श्रात्मा का स्पर्श करे, ब्रह्म वह है जो ग्रात्मा के सत्य रूप को पहिचाने। वह ब्रह्म निष्कर्म मोर विशुद्ध है : निज पद रमे राम सौ कहिये, रहिम करे रहिमान री । करशे कर्म कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री ॥ परसे रूप पारस सौ कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्मरी । इह विध साधी आप आनंदघन, चेतनमय निःकर्म री || जैनदर्शन वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप पर विचार करने के लिए नय प्रणाली का उपयोग करता है । तदनुसार वस्तु के मूल अथवा शुद्ध स्वरूप को निश्चय नय और अशुद्ध स्वरूप को व्यवहार नय के अन्तर्गत रखा जाता है । जीव की निष्कर्मावस्था पर शुद्ध प्रथवा निश्चयनय से और सकर्मावस्था पर प्रशुद्ध अथवा व्यवहार नय से विचार किया जाता है । मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में साधकों ने इन दोनों प्रणालियों को यथासमय अपनाया । मात्मा के स्वरूप पर भी उन्होंने इन्हीं दोनों प्रणालियों के आधार पर विचार किया है । 1. नाटक समयसार, उत्थानिका, 36-37; नाममाला भी देखिये । 2. जैन शोध मोर समीक्षा, पृ. 72.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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