SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 पद 62) 1 क्या प्रोस से कभी प्यास बुझ सकती है ?1 क्या विषय-सुख से कभी सहज शाश्वत सुख प्राप्त हो सकता है ? इसलिए रे चेतन ! पर-पदार्थों से प्रीति मत कर । तुम दोनों का स्वभाव बिल्कुल भित है। तू विवेकी है और पर पदार्थ जड़ हैं। ऐसी स्थिति में तू कहाँ उनमें फँसा हुआ है-जिय जिन करहि पर सों प्रीति । एक प्रकृति न मिलें जासों को मरे तिहि नीति | 2 बुधजन को अज्ञानी जीव के इन कार्यों पर प्रचंभा होता हैं कि वह पाप कर्म को भी धर्म से सम्बद्ध करता है 'पाप काज करि धन को चाहै, धर्म विषै में बताव छ । 3 इसलिए मनराम तो सीधा कह देते हैं- 'चेतन इह घर नाहीं तेरी ।' मिथ्यात्व के कारण ही तूने इसे अपना घर माना है। सद्गुरु के वचन रूपी दीपक का प्रकाश मिलने पर यह तेरा अज्ञान अंधकार अपने प्राय ध्वस्त हो जायेगा । 4 मैया भगवतीदास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए चेतन को सम्बोधते हुए कहते हैं-रे मूढ, पाल्मा को पहिचान । वह ज्ञान में है और ध्यान में है । न वह मरता है और न उत्पन्न होता है, न राव है न रंक । वह तो ज्ञान निधान है । श्रात्मप्रकाश करता है मोर प्रष्ट कर्मों का नाश करता है । सुनो राय चिदानन्द, तुम अनंत काल से इन्द्रिय सुख में रमण कर रहे हो फिर भी तृप्त नहीं हुए ।" साधक श्रात्मसम्बोधन के माध्यम से अपने कृत कर्मों पर पश्चात्ताप करता है जिसे रहस्य भावना की एक विशिष्ट सीढ़ी कही जा सकती है। उसकी यही मानसिक जागरूकता उसे साधना पथ से विमुख नहीं होने देती । चित्त विशुद्ध हो जाने से सांसारिक प्रासक्ति कोसों दूर हो जाती है । फलतः वह श्रात्मचिन्तन में अधिक सघनता के साथ जूट जाता है । 4. प्रात्मचिन्तन : जैन दर्शन में सप्त तत्वों में जीव अथवा श्रात्मा को सर्व प्रमुख स्थान दिया गया है। वहां जीव के दो स्वरूपों वर्णन का मिलता है-संसारी और मुक्त | संसार 1 2. 3. 4. 5. 6. सहज सुख बिन, विषय सुख रस, भोगवत न प्रघात । रूपचन्द चित चेत प्रोसनि, प्यास तों न बुझात ॥ हिन्दी पद संग्रह, पद 37. वही, पद, 38. बुधजन विलास, पद 85. हिन्दी पद संग्रह, पद 352. ब्रह्मविलास, पुण्यपचीसिका, 13, 23. वही, 14-15, पृ. 11.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy