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________________ रूपचन्द अपने मन की बल्टी रीति की और संकेत करते हैं कि वहां दुका मिलता है वहीं वह दौड़ता है इसलिए वे उसके सामने अपनी हार मान लेते हैं। पर पदार्थों से ममत्व करने के बाद भैया भगवतीदास को बब शान का माभास होता है तो वह कह उठते हैं, रे मूड मन, चेतन को भूलकर इस परछाया में कहाँ भटक गये हो ? इसमें तेरा कोई स्वरूप नहीं। वह तो मात्र व्याधि का घर है । तेरा स्वरूप तो सदा सम्यक् गुण रहा है और शेष माया रूप भ्रम है। इस अनुपम रूप को देखते ही सिद्ध स्वरूप प्राप्त हो जायेगा । अभी तक विषय सुखों में तू रमा रहा, पर यदि विचार करो तो उससे तुम्हारा भला नहीं होगा । तो ऐसे शानियों-ध्यानियों का साथ कर जिनसे मति दुषर सके। उनसे यह मोह माया छूटेगी और तुम सिद्ध पद प्राप्त कर लोगे। चेतन कर्म चरित्र में 'चेतन मन भाई रे" का सम्बोधन कर कवि ने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार मन माया, मिथ्या और शोक में लगा रहता है । इन तीनों शल्यों को मूलतः छोड़ना चाहिए । तदर्थ कोष, मान, माया और लोभादिक कषाय, मोह, अज्ञान विषयसुख प्रादि विकारों को तिलांजलि देकर अविनाशी ब्रह्म की पाराधना करनी चाहिए। संसार में पाने के बाद मरण अवश्यम्भावी है फिर धन योवन, विषय रस प्रादि में रे मूढ़, क्यों लीन है, तन और मायु दोनों क्षीण उसी तरह हो रहे हैं जैसे अजुलि से जल झरता जाता है । इसलिए जन्म-मरण के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करो।" पंचेन्द्रिय संवाद में मन के दोनों पक्षों को कवि ने सुघड़ता से रखा है । मन अपने आपको सभी का सरदार कहता है। वह कहता है कि मन से ही कर्म मीण होता है, करुण पुन्य होता है और प्रास्मतत्व जाना जाता है । इसलिए मन इन्द्रियों का राजा है और इन्द्रियां मन की दास हैं। तब मुनिराज ने उसका दूसरा पक्ष उसी के समक्ष रखा-रे मन, तू व्यर्थ में गर्व कर रहा है। तुम्हारे कारण ही तन्दुल मच्छ नरक में जाता है, जीव कोई पाप करता है तब उसका अनुमोदन करता है, इन्द्रियां तो शरीर के साथ ही बैठी रहती हैं पर दिन रात इधर-उपर चक्कर लगाता रहता है । फलतः कर्म बंधते जाते हैं। इसलिए रे मन, राग द्वेष को दूर कर परमात्मा में अपने को लगायो । 1. हिन्दी, पद संग्रह 651 2. ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, 471 3. वही, 81। 4. बही, चेतन कर्म चरित्र, 234-246 । 5. वही, परमार्थ पद पंक्ति, शिक्षा ईद, पृ. 1081 6. बही, पंचेन्द्रिय संबाद, 112-1241
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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