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________________ 124 विरता बिरता, सूखता, उतराता है। अब चेतन रूप स्वामी जागता है और उसका परिणाम समझता है तो वह समता रूप श्रृंखला फेकता है । फलतः भंवर का प्रकोप कम हो जाता है। कर्म समुद्र विभाव जल, विषयकषाय तरंग। बडवागनि तृष्णा प्रवल, ममता धुनि सरवंग ॥5॥ भरम भंवर तामें फिर, मनजहाज चहुँ और । गिरं खिरं बूड तिर, उदय पवन के जोर ॥6॥ जब चेतन मालिम जग, लखै विपाक नतूम । डार समता शृंखला, थक भ्रमर की धूम 11701 बनारसीदास का मन इधर-उपर बहुत भटकता रहा । इसलिए वे कहते हैं कि रे मन, सदा सन्तोष धारण किया कर । सब दुःखादिक दोष उससे नष्ट हो जाते है। मन भ्रम अथवा दुविधा का घर है । कवि को इसकी बड़ी चिन्ता है कि इस मन की यह दुविधा कब मिटेगी मोर कब वह निजनाथ निरंजन का स्मरण करेगा, कर वह अक्षय पक्ष की पोर लक्ष्य बनायेगा, कब वह तन की ममता छोड़कर समता ग्रहण कर शुभमान की ओर मुड़ेगा, सद्गुरु के वचन उसके घट के अन्दर निरन्तर कब रहेंगे, कर परमार्थ सुख को प्राप्त करेगा, कब धन की तृष्णा दूर होगी, कब घर को छोड़कर एकाकी वनवासी होगा । अपने मन की ऐसी दशा प्राप्त करने के लिए कवि पातुर होता हुमा दिखाई देता है। जगजीवन का मन धर्म के मर्म को नहीं पहचान सका। उसके मन ने दूसरों की हिंसा कर धन का अपहरण करना चाहा, पर स्त्री से रति करनी चाही, असत्य भाषण कर बुरा करना चाहा, परिग्रह का भार लेना चाहा, तृष्णा के कारण संकल्प विकल्पमय परिणाम किये, रौद्रभाव धारण किये, क्रोध, मान, माया लोभादि कषाय और अष्टमद के वशीभूत होकर मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा, पापमयी क्रियायें कर एख-सम्पत्ति चाही, पर मिली नहीं । जगतराम का मन भी बस में नहीं होता। वे किसी तरह से उसे खींचकर भगषच्चरण में लगाते है पर क्षण भर बाद पुनः वह वहां से भाग जाता है। प्रसाता कमों ने उसे खूब झकझोरा है इसलिए वह शिथिल पौर मुरझा-सा गया है । साता कर्मों का उदय पाते ही वह हर्षित हो जाता है।" 1. बनारसीविलास, पृ. 152, 331 2. रे. मन ! कर सदा सन्तोष, जातें मिटत सब दुःख दोष । बनारसीविलास, पृ. 2281 3. वही, अध्यातम पंक्ति, 13 पृ. 2311 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 821 5. वही, पृ.95।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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