SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 120 मनबत्तीसी में कवि ने मन के चार प्रकार बताये हैं-सत्य, पसत्य अनुभव और उभय । प्रथम दो प्रकार संसार की भोर मुकते हैं और शेष दो प्रकार भवपार कराते हैं । मन यदि ब्रह्म में लग गया तो अपार सुख का कारण बना, पर यदि भ्रम में लग गया तो मपार दुःख का कारण सिद्ध होगा। इसलिए त्रिलोक में मन से बली और कोई नहीं। मन दास भी है, भूप भी है। वह पति चंचल है। जीते जी मात्मज्ञान मोर मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। जिसने उसे पराजित कर दिया वही सही योता है। जैसे ही मन ध्यान में केन्द्रित हो जाता है, इन्द्रियां निराश हो जाती हैं और प्रारम ब्रह्म प्रगट हो जाता है । मन जैसा मूर्ख भी संसार में कोई दूसरा नहीं। वह सुख-सागर को छोड़कर विष के वन में बैठ जाता है। बड़े-बड़े महाराजाओं ने षट्खण्ड का राज्य किया पर वे मन को नहीं जीत पाये इसलिए उन्हें नरक गति के दुःख भोगना पड़े। मन पर विजय न पाने के कारण ही इन्द्र भी पाकर गर्भधारणा करता है । प्रतः भाव ही बन्ध का कारण है और भाव ही मुक्ति का । कपि भूधरदास ने मन को हाथी मानकर उसके अपर-शान को महावत के रूप में बैठापा पर उसे वह गिराकर, समति की सांकल तोड़कर भाग खड़ा प्रा। उसने गुरु का अंकुश नहीं माना, ब्रह्मचर्य रूप वृक्ष को उखाड़ दिया, अघरज से स्नान किया, कर्ण पोर इन्द्रियों की चपलता को धारण किया, कुमति रूप हथिनी से रमण किया। इस प्रकार यह मदमत्त-मन-हाथी स्वच्छतापूर्वक विचरण कर रहा है। गुण रूप पथिक उसके पास एक भी नहीं पाते। इसलिए जीव का कत्तव्य है कि वह उसे वैराग्य के स्तम्भ से बांध ले। ज्ञान महावत डारि, सुमति संकलगहि खण्ड । मुरु अंकुश नहिं पिन, ब्रह्मवत-विरख विहंडे । करि सिंघत सर न्हौन, केलि अघ-रज सौं ठाने । करन चपलता धरै, कुमति करनी रति मान ।। डोलत सुधन्द मदमत्त मति, गुण-पथिक न भावात उर। वैराग्य खंभते बांध नर, मन-पतंग विचरत बुरै ॥2 एक स्थान पर भूधरदास कवि ने मन को सुमा और जिनधरण को पिंजरा का रूपक देकर सुपा को पिंजरे में बैठने की सलाह दी और अनेक उपमानों के साथ कर्मों से मुक्त हो जाने का प्राग्रह किया है-'मेरे मन सुपा जिनपद-पीअरे वसि यार - 1. वही, मनवत्तीसी, भावन ही तै बन्ध है, भावन ही ते मुक्ति। जो जानं गति भाव की, सो जान यह युक्ति ॥26॥ वही, फुटकर कविता, 91 2. जैनशतक, 67 पृ. 261
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy