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________________ पैलन नाम भयो जड़ काहे, अपनी नाम कमायो । तीन लोक की राज छाडिक, भीख मांग न लगायो ।' भूउपना मिथ्या अब छूटे, तब तू सन्त कहायो । 'चानत' सुख अनन्त शिव विलसी, यों सद्गुरु बतलायी 11 दौलतराम इस मिथ्या भ्रम-निद्रा को देखकर अत्यन्त दुड़ी हुए और कह उठे-रे नर, इस दुःखदाई भ्रम निद्रा को छोड़ते क्यों नहीं हो ? चिरकाल से नसी में पड़े हुए हो, पर यह नहीं सोचते कि इसमें तुम्हारा क्या कितना घाटा इसा है ? मूर्ख व्यक्ति पाप-पुण्य कार्यों में कोई भेद नहीं करता और न उसका मर्म ही समझता है। जेब दुःखों की ज्वाला में झुलसने लगता है तब उसे कष्ट होता है। इतने पर भी निद्रा भंग नहीं होती । कवि पुनः अन्य प्रकार से कहता है कि तुम्हारे सिर पर यमराज के भयंकर बाजे बज रहे हैं, अनेक व्यक्ति प्रतिदिन प्राण त्यायते हैं। क्या तुम्हें यह समाचार सुनाई नहीं दिया ? तुमने अपना रूप तो मुला दिया पौर पर रूप को स्वीकार कर लिया । इतना ही नही, तुमने इन्द्रिय विषयों का ईधन जलाकर इच्छामों को बढ़ा दिया। अब तो एक यही मार्ग है कि तुम राग-द्वेष को छोड़कर मोक्ष के रास्ते को पकड़ लो :हे नर, भ्रम-नीद क्यों न छोड़त दु.खदाई । सोवत चिरकाल सोंज मापनी उमाई ।। मूरख अधकर्म कहा, भेद नहिं मर्म लहा । लागै दुःख ज्वाला की न देह के तताई ॥ जम के रव बाजते, सुमैरव अति गाजते । अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई। जैन रहस्यवाद में मिथ्याक्ष्य के तीन भेद होते हैं-मियादर्शन, मिथ्यामन और मिथ्याचारित्र । ये तीनों भेद गृहील और अगृहीत स्य होते हैं। गृहीत का पर्व है बाझकारणों से ग्रहण करना मौर मगहीत का तात्पर्य है निसर्गम, अनादिकाल से होना । इन्हीं के कारण संसारी भव प्रापण करता रहता है। जीवादि सप्त सवीं के स्वरूप पर यथार्थ रूप से श्रद्धा न करना अगृहीत मिथ्यावर्शन है और उससे जला होने वाला ज्ञान प्रग्रहीत मिथ्याज्ञान है । पंचेन्द्रियों के विषय भोगों का सेवन करना अग्रहीत मिथ्याचारिम है। इनके कारण जीव पवे मापको सुली-युःखी, बनी, मिनी, सबल, निर्बल आदि रूप से मानता है, शरीर के उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति और शरीर के नष्ट होने पर अपना नाश समझता है, रागद्वेषादि कारसों को जुटाता है पौर प्रारम-मालिको मौकर इच्छामों का अम्बार समान है। नहीं मियादर्शन में जीव कुगुरू, कुदेव और कुधर्म का देवन करता है। गुरु का वह व्यक्ति जो मिथ्यात्वादि अन्तरंग परिग्रह और पीतवस्त्रादिबास परिषद को भारत करता हो, 1. मध्यात्म पदावलि, पृ. 360 2. अध्यात्म पदावली, पृ. 3441
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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