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________________ 1010 मूदार कौन हो सकता है यह चेतन-चेतन की हिंसा करता रहा, भईय-अभक्ष्य "साता रहा, सत्व को सत्य और असत्य की सत्य मानती रहा, 'वस्तु के स्वभाव को नही पहचाना, मात्र बाह्य क्रियाकाण्ड को धर्म मानर्ता रहा तथा कुँगुरु, कुदेव और सुपर का सेवन करता रहा । मोह के प्रम से राग-द्वेष में हुँदो रहा । मोह केपरिणाम स्वरुप जीप में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। रागद्वेष उसका मूल स्वभाव नहीं। रागादिक के रंग से स्फटिक भरिण जैसा विशुद्ध चेतन भी रंगीला दिखाई देने लगता है। यह रंगीला भाव मिथ्यात्व है । मिध्यात्व से ही वह काया माया को स्थिर मानकर उसमें पासरत रहता है। लोभी बनकर इच्छामों की दावानल में भुखरता रहता है। जीव भोर पुनल के भेद को न समझकर मज्ञानी बना रहता है।' कविवर द्यानतराय मिथ्याज्ञानी की स्थिति देखकर पूछ उठते हैं कि हे मात्मन्, यह मिथ्यात्व तुमने कहां से प्राप्त किया ? सारा संसार स्वार्थ की भोर निहारता है पर तुम्हें अपना स्वार्थ स्वकल्याण नहीं रुचा। इस अपवित्र, अचेतन देह में तुम कैसे मोहासक्त हो गये ? अपना परम प्रतीन्द्रिय साक्षात सुख छोड़कर इन्द्रियों की विषय-वासना में तन्मय हो रहे हो । तुम्हारा तम्ब माम जड़ क्यों हो गया और तुमने अपना अनन्त ज्ञानादिक गुणों से युक्त अपना नाम क्यों मुला दिया ? त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़ कर इस परतन्त्र को स्वीकारते हुए तुम्हें लज्जा नहीं पाती। मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। "जीव ! तू मूढपना कित पायो। सब जग स्वारथ को चाहत है, स्वारय तोहि न भायो। अशुचि अचेत दुष्ट तन माही, कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निज मुख हरि के, विषय-रोग सक्टायो ।। 1. "खाय चल्यो गांड की कमाई कौड़ी एक नाही। सो सौ मूढ दूसरी न ढूढयो कहूँ पायो है ।। ब्रह्मविलास, अनित्यपचीसिका, 11. 2. वही, सुपथ-कुपथ पचीसिका, 5-22. 3. वही, मोह भ्रमाष्टक 4. वही, रागादि निर्णयाष्टक, 2. 5. हिन्दी पद संग्रह, बुधजन, पृ. 196. 6. सुषजनविलास, 29. 7. वही, 71.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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