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________________ 112 अपने को सुनि मानता हो, मनाता हो। राग-द्वेषादि युक्त देव-कुदेव हैं और हिंसादि का उपदेश देने वाला धर्म कुधर्म है । इनका सेवन करने वाला व्यक्ति संसार में स्वयं डूबता है और दूसरे को भी डुबाता है । वे एकान्तवाद का कथन करते हैं तथा भेदविज्ञान न होने से कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की हठयोगादिक क्रियायें करते हैं । 1 मिध्यादृष्टि जीव पंचेन्द्रियों के विषय सुख में निजसुख भूल जाता है । जैसे कल्पवृक्ष को जड़ से उखाड़कर धतूरे को रोप दिया जाय, गजराज को बेचकर गंधे को खरीद लिया जाय, चिन्तामरिण रत्न को फेंककर कांच ग्रहण किया जाय वैसे ही धर्म को भूलकर विषयवासना को सुख माना जाय तो इससे अधिक मूर्खता और क्या हो सकती है ।" ये इन्द्रियां जीव को कुपथ में ले जाने वाली हैं, तुरग सी वक्रगति वाली हैं, विवेकहारिणी उरग जैसी भयंकर, पुण्य रूप वृक्ष को कुठार, कुगतिप्रदायनी fararaaraat, witतिकारिणी और दुराचारर्वाधिरणी हैं। विषयाभिलाषी जीव की प्रवृत्ति कैसी होती है, इसका उदाहरण देखिये : धर्मतरुमंजन को महामत्त कुंजर से, प्रापदा भण्डार के भरन को करोरी हैं । सत्यशील रोकने को पौढ़ परदार जैसे दुर्गति के मारग चलायवे को घोरी है ॥ कुमति के अधिकारी कुनंपंथ विहारी, भद्रभाव ईंधन जरायबे को होरी है । मृषा के सहाई दुरभावना के भाई ऐसे विषयाभिलाषी जीव अघ के अघोरी है ॥ भैया भगवतीदास चेतन को उद्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम उन दिनों को भूल गये जब माता के उदर में नव माह तक उल्टे लटके रहे. आज यौवन के रस में उन्मत्त हो गये हो। दिन बीतेंगे, यौवन बीतेगा, वृद्धावस्था प्रायेगी, मौर यम के चिह्न देखकर तुम दुःखी होगे । श्ररे चेतन, तुम श्रात्मस्वभाव को भूलकर इन्द्रियसुख में मग्न हो गये, क्रोधादिकपायों के वशीभूत होकर दर-दर भटक गये, कभी तुमने भामिनी के साथ काम क्रीड़ा की कमी लक्ष्मी को सब कुछ मानकर अनीतिपूर्वक द्रव्यार्जन किया और कभी बली बनकर निर्बलों को प्रताड़ित किया । अष्ट मदों से तुम खूब खेले और धन-धान्य, पुत्रादि इच्छाओं की पूर्ति में लगे रहे। पर ये सब सुख मात्र सुखाभास हैं, क्षणिक हैं, तुम्हारा साथ देने वाले नहीं । नारी विष की वेल है, दुःखदाई है। इनका संग छोड़ देना ही श्रेयस्कर है 18 2 छहढाला, दौलतराम, द्वितीय ढाल; मनमोदक पंचशती, 106-8 1 बनारसीविलास, भाषासूक्त मुक्तावली, 6 पृ. 201 1. 2. 3. वही, 72, पृ. 54 4. ब्रह्मविलास, प्रात प्रष्टोत्तरी, 32-331 5. ब्रह्मविलास, 39-44, हिन्दी पद संग्रह, पृ. 431 6. वही, 79-81
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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