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________________ कित गये पंच किसान हमारे। कित० ॥ टेक ॥ । बोयो बीज खेत गयो गिरफल, भर बये खाद पनारे। कपटी लोगों से साझाकर,....हुए माप विचारे ||1| प्राप दिवाना गह-गह बैठो लिख-लिख कागद डारे। बाकी निकसी पकरे मुकद्दम, पांचों हो गये न्यारे 112॥ रुक गयो कंठ शब्द नहिं निकसत, हा हा कम सौं हारे। 'बनारसि' या नगर न बसिये, चल गये सींचन हारे ।॥3॥' संसार की प्रसारता को देखते हुए कविवर भगवतीदास संसारी से अभिमान छोड़ने को कहते हैं-'छाडि दे अभिमान जियके छोडि दे । राजा रंक प्रादि कोई कभी स्थिर रूप से यहां नहीं रहे । तुम्हारे देखते-देखते कितने लोग पाये और गथे । एक क्षण के विषय में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। भतः चतुर्मति के प्रमरण में कारणभूत इन कर्मों को छोड़ने का प्रयत्ल करो। पांडे रूपचन्द की मात्मा निजपद को भूलकर कर्मों के कारण संसार में जन्म मरण करने लगी। उसे तृष्णा की प्यास भी अधिक लगी-- विषयन सेवते भये, तृष्णा तें न बुझाय, ज्यों जलखारा पीवतें, वाढे तृणाधिकाय । कनककीर्ति ने भी कर्म घटावली में अष्टकर्मों के प्रभाव को स्पष्ट किया है। इस प्रभाव को साधक और गहराई से सोचता है कि वह किस प्रकार उसकी मात्मा के मूल गुरणों का हनन करता है । भूधरदास "देख्या बीच जहान के स्वप्ने का प्रजेब तमाशा रे । एको के घर मंगल गावं पूरी मन की भाशा । एक वियोग मरे बहु रोव भरि-भरि नैन निरासा" कहकर कर्म के स्वभाव को अभिव्यक्त करते हैं। 6. मिथ्यास्व मिथ्यात्व का तात्पर्य है प्रज्ञान और प्रज्ञान का तात्पर्य है धर्म विशेष के सिद्धान्तों पर विश्वास नहीं करना । मिथ्यात्व, प्रज्ञान, प्रविद्या, मिथ्याशान, मिथ्या. दृष्टि, मादि शब्द समानार्थक हैं । प्रत्येक धर्म और दर्शन ने इन शब्दों का प्रयोग 1. बनारसी विलास-पृ. 240. 2. ब्रह्मविलास, परमार्थ पद पंक्ति, 12. रूपचन्द “लसुन के पात्र कि बास कपूर की कपूर के पात्र कि लसुन की होइ" कहकर कर्म प्रकृति को स्पष्ट करते हैं । 3. परमार्थी दोहाशतक, जनहितेषी, भाग 6, अंक 5-6; जैन सिद्धान्त भवन पारा में एक हस्तलिखित प्रति है। 4. कर्मघटावलि, बधीचन्द मन्दिर, जयपुर, गुटका नं. 108.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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