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________________ 164 वस्तराम साह का जीव इन कर्मों से भयभीत हो गया । वह इन्हों का के कारण पर-पदार्थों में मासक्त रहा और भव भव के दुःख भोगे । कर्मों से अत्यन्त दुःखी होकर वे कहते हैं कि ये कर्म मेरा साथ एक पल मात्र को भी नहीं छोड़ते।। भया भगवतीदास तो करुणाद्र होकर कह उठते हैं, कि धुएं के समुदाय को देखर गर्व कौन करेगा क्योकि पवन के चलते ही वह समाप्त हो जाने वाला है। सन्ध्या का रंग देखते-देखते जैसे विलीन हो जाता है, दीपक-पतंग जैसे काल-कवलित हो जाता है, स्वप्न मे जैसे कोई नृपति बन जाता है, इन्द्रधनुष जैसे शीघ्र ही मष्ट हो जाता है, मोसबूद जैसे धूप के निकलते ही सूख जाती है, उसी प्रकार कर्म जाल में फंसा मूढ जीव दु:खी बना रहता है। 'धूमन के धौरहर देख कहा गर्व कर, ये तो छिनमाहि जाहि पौन परसत ही। संध्या के समान रंग देखत ही होय मंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही ।। सुपने में भूप जैसें इन्द्र धनुरूप जैसें, प्रोस बंद धूप जैसे दुर दरसत ही। ऐसोई भरम सब कर्म जालवर्गणा को, तामे मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ॥2 कर्म ही जीव को इधर से उधर त्रिभुवन में नचाता रहता है। बुधजन 'हो विषना की मौप कही तो न जाय । सुलट उलट उलटी सुलटा दे प्रदरस पुनि दरसाय ।" कहकर कर्म की प्रबलता का दिग्दर्शन करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि कर्मों की रेखा पाषाण रेखा-सी रहती है । वह किसी भी प्रकार टाली नही जा सकती। त्रिभुवन का राजा रावण क्षण भर में नरक मे जा पड़ा । कृष्ण का छप्पन कोटि का परिवार वन में बिलखते-बिलखते मर गया। हनुमान की माता अंजना वन-वन रुदन करती रही, भरत बाहुबलि के बीच घनघोर युद्ध हुमा, राम और लक्ष्मण ने सीता के साथ वनवास झेला, महासती सीता को दधकती आग में कूदना पड़ा, महाबली पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का चीर हरण किया गया, कृष्ण रुक्मणी का पुत्र प्रथम्न देवों द्वारा हर लिया गया । ऐसे सहस्रों उदाहरण हैं जो कर्मों की गाथा गाते मिलते हैं । अष्टकर्मों को नष्ट किये बिना संसार का प्रावागमन समाप्त नहीं होता। इस पर चिन्तन करते हुए शरीरान्त हो जाने के बाद की कल्पना करता है और कहता है कि अब वे हमारे पाचो किसान (इन्द्रियाँ) कहां गये । उनको खूब खिलाया पिलाया, पर वह सब निष्फल हो गया । चेतन अलग हो गया और इन्द्रिया मलग हो गई। ऐसी स्थिति मे उससे मोहादि करने की क्या मावश्यकता ? देखिये इसे कवि कलाकार ने कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है 1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 165. 2. ब्रह्मविलास, पुण्य पचीसिका, 17 पृ. 5, नाटक पचीसी 2 पृ. 23. 3. ब्रह्मविलास, प्रनित्यपचीसिका, 16 पृ. 175. 4. बुधजन विलास पद 73. 5. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 241. कर्मन की रेखा न्यारी से विषना टारी नाहिटर 1
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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