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________________ 106 समभय समान अर्थों में किया है। उनके विश्लेषाण की प्रक्रिया भले ही पृथक रही हो। इसलिए हर समुसामा के साहित्य में इसके भेद-प्रमेव मी अपने ढंग से किये गये हैं। जम-साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व उस दृष्टि को कहा गया है जिसमें विशुद्धता न हो, पर पदार्थों में प्रासक्ति हो, एकान्तवादी का पक्षपाती हो, भेदविज्ञान जाग्रत न हुमा हो, कर्म के मनोरों से संसार में वैसा ही डोलता हो जैसे बधरूड़े में पड़ा पत्ता, कोषादि कषायों से ग्रसित हो, पौर क्षण भर मे सुखी और क्षण भर में दुःखी बन जाता हो । माया, मिथ्या और शोक इन तीनों को शल्य कहा गया है। वामण इन्हीं में उलझे रहते हैं । व्यक्ति इनके रहते विशुद्धावस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार लाल रंग के कारण से दूसरा पट भी लाल दिखाई देता है अथवा कपिरादि से साफ करने पर कपड़ा सफेद नहीं रह सकता। उसी प्रकार मिथ्यास्य से प्राबुत रहने पर सम्यक् ज्ञानादिक गुणों की प्राप्ति नहीं की जा सकती। पुदगल प्रथया पदार्थों से मोह रखना तथा पुद्गल और आत्मा को एक रूप मानना यही मिथ्याभ्रम है । प्रात्मा जब पुद्गल की दशा को मानने लगता है तभी उसमें कर्म मौर विभाव उत्पन्न होना प्रारम्भ हो जाते हैं । परिप्रहादिक बढ़ जाते हैं। मदिरापान किये बन्दर को यदि विच्छू काट जाय तो जिस प्रकार वह उत्पाद करता है उसी प्रकार मिथ्याज्ञानी भी प्रात्मज्ञानी न होने के कारण भटकता रहता है। कर्म रूपी रोग की दो प्रकृतियों होती हैं । एक कम्पन मौर दूसरी ऐंठना । शास्त्रीय परिभाषा में इन दोनों को क्रमश: पाप और पुण्य कहा गया है। विशुद्धारमा इन दोनों से शून्य रहता है। पाप के समान पुण्य को भी जैन दर्शन में दुःख का कारण माना गया है क्योंकि वह भी एक प्रकार का राग है और राग मुक्ति का कारण हो नहीं सकता। यह अवश्य है कि दानपूजारिक शुभ भाव हैं जो शुद्धोपयोग को प्राप्त कराने में सहयोगी होते हैं । इसलिए बनारसीरास ने पुण्य को भी 'रोग' रूप मान लिया है। पाप से तपादिक रोग, चिन्ता, दुःख प्रादि उत्पन्न होते हैं और पुण्य से संसार बढ़ाने वाले विषपभोगों की बुद्धि पार्स-रौद्रादि ध्यान उत्पन्न होते हैं। मिथ्यावी इन दोनों को समान मानता है, कम्पन रोग से भय करता है मौर ऐंठन से" प्रीति । एक में उद्वेग होता है और दूसरे में उपशान्ति । एक में कच्छप जैसा 1. वित्र देखिए, स. भामचन्द्र जैन, बौद्ध संस्कृति का इतिहास, प्रथमाध्याय 2. बमारसी विलास, मानमावनी 5, नाटक समयसार, उत्पानिका, 9. भूधर विलास, पद 9. 3. बनारसी विलास, मोक्ष पैठी 9. 4, वही, कर्म बत्तीची .
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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