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________________ 1031 बसता है और काय कर्म जोकर्म से बंधा पुदगल पिण्ड है । 1 भावकर्म के के रूप है। ज्ञान और कर्म ज्ञान चक चेतन के अन्तर में गुप्त और ज्ञानचक प्रत्यक्ष है। दूस शब्दों में यह कह सकते हैं कि चेतन के ये दोनों भाद शुक्लपक्ष र कृष्णपा के समान हैं। शाम के कारण चेतन सजग बना रहता है और कर्म के कास्य मित्रा अम्र में निति रहता है । एक दर्शक है, दूसरा मा एक निर्जरा का कारण है, दूसरा मंत्र का 12 जैन धर्म में कर्मों के प्राभव के कारण पांच माने रति (व्रताभाव), प्रमाद, कषाय (क्रोध, मान, माया और वचन, काय की प्रवृत्ति) । दानं पुण्यादिक कार्य शुभ कर्म के कारण हैं और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह यादि पाप श्रथवा अशुभ बन्ध के कारण हैं। कम का बन्ध चार प्रकार का होता है- प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाव बन्ध और प्रदेश बन्ध | प्रकृतिबन्ध आठ प्रकार का है - ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन कर्मों के भेद प्रभेदादि की भी चर्चा जैन शस्त्रों के अनुसार मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने बड़ी गहराई और विस्तार से की है । उस गहराई तक हम नहीं जाना चाहेंगे। हम यहां मात्र यह कहना चाहते हैं कि इन कर्मों के कारण जीव संसार मे परिभ्रमण करता रहता है। जीव के सुख दुःख का प्रमुख कारण कर्म माना गया है। जिस प्रकार से तेज जल प्रवाह मे भंवर चक्कर लगाता रहता है और उसमें फंस जाने वाला मृत्यु का शिकार हो जाता है उसी प्रकार कर्म का विपाक हो जाने पर जीव संसार के जन्म-मरण के प्रवाह में विद्यमान कर्मरूप भंवर में फंसे जाता है 15 जिस प्रकार ज्वार के प्रकोप से भोजन में कोई रुचि नहीं रहती उसी प्रकार कुकर्म अथवा प्रशुभकर्म के उदय से धर्म के क्षेत्र में उसे कोई उत्साह जाग्रत नहीं होता। जब तक जीव का सम्बन्ध जड़ अथवा कर्मों से रहता है तब तक उसे दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं "जब लगु मोती सीप महि तब लगु समु गुण जाइ । जब लमु जीया संगि जड, तब लग दूख सुहाइ || "" बनारसी विलास, प्रध्यातम बत्तीसी 9-10. 1. 2. वही पृ. 14. 3. 4. स्थानांग 418. समवायांस 5. बनारसी विलास कर्म प्रकृति विधान मादि बनारसी विलास, मोक्ष पेठी, पृ. 18. 5. 6. हिन्दी भक्तिः गये हैं- मिथ्यात्व प्रर्वि लोभ) प्रोर योंग (मन) रकम..
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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