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________________ 78 करने का प्रयत्न करता है। जैन साधना में ये दोनों प्रकार की साधनायें उपलब्ध होती हैं । वस्तुतः कोई भी रहस्यभावना भावनात्मक और साधनात्मक क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकती । रहस्य भावना का सम्बन्ध चरम तत्व को प्राप्त करने से रहा है और चरम Tea का सम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योग साधना विशेष से रहना सम्भव नहीं । इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की विज्ञासा और उसका प्राचरित सम्प्रदाय विशेष महत्व रखता है । सम्प्रदायों और उनके श्राचारों का वैभिन्य सम्भ an: विचारों ओर साधनाओं में वैविष्य स्थापित कर देता है। इसलिए साधारण तौर पर आज जो वह मान्यता है कि रहस्य ाद का सम्बन्ध भारतीय साधनाओं में मात्र वैदिक साधना से ही है, भ्रम मात्र है । प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी न किसी प्राप्त पुरुष में श्रद्वैत तत्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों और रहस्यभावों को प्रतीक श्रादि माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है। यही कारण है कि धुनिक रहस्यवाद की परिभाषा मे भी मत वैभिन्य देखा जाता है । इसके बावजूद अधिकांश साधनों में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे होनाधिक रूप से किसी एक ही सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों । यह अस्वाभाविक भी नही, क्योंकि प्रत्येक साधक का लक्ष्य उस प्रदृष्ट शक्ति विशेष को श्रात्मसात करना है । उसकी प्राप्ति के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी-धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यवाद की भूमिका इन तीनों की सुन्दर संगम-स्थली है। परम सत्य या परमात्मा के आत्मसाक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है, और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त हैं । अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जना स्वाभाविक है । उनमें जैन दर्शन के स्याद्वाद और प्रमेकान्तवाद के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता । रहस्यभावना में वैभिम्य पाये जाने का यही कारण है । सम्भवतः पद्मावत में जायली ने निम्न छन्द से इसी भाव को दर्शाया है"विधना के मारग हैं तेते । सरग नखत तन रौवां जेते ॥" इस वैभिय के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है- परम सत्य की प्राप्ति बोर परमात्मा से भात्मसाक्षात्कार । रहस्य भावना किवा रहस्यवाद की परम्परा : वैविक रहस्यभावना - रहस्य भावना की भारतीय प्रारम्भ होती है । इस दृष्टि से नासदीय सूक्त मोर पुरष परम्परा वैदिक युग से सूबत विशेष महत्वपू
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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