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________________ · रहस्यवाद का सम्बन्ध जैसा हम पहले कह चुके हैं, किसी न किसी धर्मदर्शन-विशेष से अवश्य रहेगा । ऐसा लगता है, मभी तक रहस्गवाद की व्याख्या और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और सस्कृति को मानदण्ड मानकर ही की जाती रही है । ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है । इन धमों में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मादि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस मोर अधिक मुड़ जाना पड़ा । परन्तु जहां तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है वहां तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तिस्व है ही नहीं। वहां तो मात्मा ही परमात्मपद प्राप्त कर तीर्थकर अथवा बुद्ध बन सकता है। उसे अपने अन्धकाराच्छन्न मार्ग को प्रशस्त करने के लिए एक प्रदीप की मावश्यकता अवश्य रहती है जो उसे प्राचीन भाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर प्राप्त हो जाता है। रहस्य भावाद हिना रहस्यवाव के प्रकार : रहस्य भावना अथवा रहस्यवाद के प्रकार साधनामों के प्रकारों पर प्रवलम्बित हैं। विश्व में जितनी साधनायें होंगी, रहस्यवाद के भी उसने भेद होंगे। उन भेदों के भी प्रभेद मिलेंगे। उन सब भेदों-प्रभेदों को देखने पर सामान्यतः दो भेद किये जाते हैं- भावनात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद । भावनास्मक रहस्यवाद अनुभूति पर प्राधारित है और साधनात्मक रहस्यवाद सम्य प्राचार-विचार युक्त योगसाधना पर । दोनों का लक्ष्य एक ही है। परमात्मपद अथवा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में परमपद से विमुक्त प्रात्मा द्वारा उसकी प्राप्ति के संदर्भ में प्रेम अथवा दाम्पत्य भाव टपकता है। अभिव्यक्ति की असमर्थता होने पर प्रतीकात्मक रूप में अपना अनुभव व्यक्त किया जाता है। यौगिक साधनों को भी वह स्वीकार करता है और फिर भावावेश में प्राकर अन्य माध्यात्मिक तथ्यों किंवा सिद्धान्तों का निरूपण करने लगता है । अतः डॉ. त्रिगुणायत के स्वर में हम अपना स्वर मिलाकर रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद के निम्न प्रकार कह सकते हैं 1. भावात्मक या प्रेम प्रधान रहस्य भावना, 2. अभिव्यक्तिमूलक अथवा प्रतीकात्मक रहस्यभावना, 3. प्रकृतिमूलक रहस्य भावना, 4. यौगिक रहस्य भावना, और 5. माध्यात्मिक रहस्य भावना। रहस्य भावना के ये सभी प्रकार भावनात्मक और साधनात्मक रहस्यभावना के अन्तर्गत पा जाते हैं। उनकी साधना अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी. दोनों होती हैं। मन्तमुखी साधना में साधक अशुद्धात्मा के मूल स्वरूप विशुखात्मा को प्रियतम अथवा प्रियतमा के रूप में स्वीकारकर उसे योगादि के माध्यम से खोजने का प्रयत्न करता है तथा बहिर्मुखी साधना में विविध माध्यात्मिक तथ्यों को स्पष्ट
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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