SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 हैं। नासदीय सूक्त में एक ऋषि के रहस्यात्मक अनुभवों का वर्णन है। तदनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में न सत् था न भसत् और न प्रकाश था । किसने किसके सुख के लिए प्रावरण डाला ? तब अगाध जल भी कहां था ? न मृत्यु यी न प्रमृत । न रात्रि को पहिचाना जा सकता था, न दिन को । वह अकेला ही अपनी शक्ति से श्वासोच्छवास लेता रहा इसके परे कुछ भी न था । 'पुरुषसूक्त' में रहस्यमय ब्रह्म के स्वरूप की तो बड़ी सुन्दर कल्पना की गयी हैं।" यहां यज्ञ की प्रमुखता के साथ ही बहुtaarara का जन्म हुआ और फिर जनमानस एक देवतावाद की भोर मुड़ गया । उपनिषद् साहित्य में यह रहस्य भावना कुछ और अधिक गहराई के साथ क्ति हुई है। वेदों से उपनिषदों तक की यात्रा में ब्रह्म विद्यापूर्ण रहस्यमयी और बन चुकी थी । उसे पुत्र, शिव्य अथवा प्रशान्तचित्तवान् व्यक्ति को ही दे का निर्देश है । जरत्कार और याज्ञवल्क का संवाद भी हमारे कथन को पुष्ठ करता है । कठोपनिषद् में प्रात्मा की उपलब्धि श्रात्मा के द्वारा ही सम्भव बताई गई है। वहां उस प्रात्मज्ञान को न प्रवचन से, न मेघा से और न बहुश्रुत से प्राप्त बताया गया है । 4 तर्क से भी वह गभ्य नहीं ।' वह तो परमेश्वर की भक्ति और स्वयं के साक्षात्कार अथवा अनुभव से ही गम्य है ।" मुण्डकोपनिषद् की पराविद्या यही ब्रह्म four है | यही श्रेय है । इसी को अध्यात्मनिष्ठ कहा गया है । श्रविद्या के प्रभाव से प्रत्येक आत्मा स्वयं को स्वतन्त्र मानता है परन्तु वस्तुतः वैदिक रहस्यवादी विचारधारा के अनुसार वे सभी ब्रह्म के ही अंश हैं । यही ब्रह्म शक्तिशाली और सनातन है । यह ब्रह्मविद्या अविद्या से प्राप्त नही की जा सकती । परमात्म ज्ञान से ही यह विद्या दूर हो सकती है ।" श्वेताश्वतरोपनिषद् में कैवल्य प्राप्ति की चार सीढ़ियों का निर्देशन किया गया है 18 1. ऋग्वेद 10 129 1-2; भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 24. 2. वही, 10.90.1. 3. वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम् । नाप्रज्ञान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः ।। श्वेताश्वतर 6.22. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेघया बहुना श्रुतेन । यवेष वृते तेन लभ्यस्तस्यैष भात्मा विश्रृणुते तन स्वाम् ॥ कठोप 1.2. 23, 5. 6. 7. 8. बी, 1. 2. 9. श्वेताश्वतरोपनिषद् 6. 23 छान्दोग्योपनिषद्, 7. 1. 3. कठोपनिषद्, 1.3.14. ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापट्टानि: क्षीणैः क्लेशे जन्ममृत्यु प्रहारिणः । तस्याभिध्यानाहृतीयं देहमेवे विश्वेश्वर्य केवलं प्राप्तकामः । श्वे, पू. 1. 11
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy