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________________ वस्तुतः यहीं उनके जीवन्त-दर्शन का साक्षात्कार होता है और यहीं उनके कति रूप का उद्घाटन भी । काव्य की भाषा में इसे हम रहस्यभावना का साधारणकरण कह सकते हैं । परम तत्व की गुह्यता को समझने का इससे अधिक मच्छा और कौन-सा साधन हो सकता है ? रहस्यवार और अध्यात्मवाद: अध्यात्म अन्तस्तत्व की निश्छल गतिविधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एकरूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी न किसी साधनापथ प्रथवा धर्म पर प्राधारित हुए बिना सम्भव नहीं । साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि धर्म या सम्प्रदाय ईश्वरीय शास्त्र (Thelogy) के साथ जुड़ा रहता है । इसमें विशिष्ट माचार, बाह्य पूजन पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है जो रहस्यवाद के लिए उतने मावश्यक नहीं । पर यह मत तथ्यसंगत नही । प्रथम तो यह कि ईश्वरीय शास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म प्रयवा सम्प्रदाय से उस रूप में नहीं जिस रूप में वैदिक अथवा ईसाई धर्म में है । जैन और बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं माना गया । दूसरी बात, बाह्य पूजन पद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैन धर्म और बौद्ध धर्म के मूल रूपों में नहीं मिलता। ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं । उक्त धर्मों का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूर कर निर्वाण की प्राप्ति करना है । यही मार्ग उन धर्मों का वास्तविक आध्यात्म मार्ग है। इसी को हम तत्तद् धर्मों का 'रहस्य' भी कह सकते हैं। रहस्यवाद और दर्शन : यद्यपि दर्शन को अन्तिम परिणति अध्यात्म में होती है। पर व्यवहारतः अध्यात्म और दर्शन में अन्तर होता है। अध्यात्म अनुभूतिपरक है जबकि दर्शन बौद्धिक चेतना का दृष्टा है। पहले में तत्वज्ञान पर बल दिया जाता है जबकि दूसरा उसकी पद्धति भौर विवेचना पर धूमता रहता है । इसलिए रहस्यभावना का विस्तार विविध दार्शनिक परम्परामों तक हो जाता है चाहे वे प्रत्यक्षवादी हों पथवा परोक्षवादी । वह एक जीवन पद्धति से जुड़ जाती है जो व्यक्ति को परमपद तक पहुंचा देती है । प्रतएव रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद व्यक्ति के क्रियाकलाप में अर्थ से लेकर इति तक व्याप्त रहता है। 1, मावार्य परसुराम चतुर्वेदी, रहस्यवाद, पृष्ठ, 9.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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