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________________ ३९ शौचाचमनतत्परः, साङ्गोपाङ्गेन संशुद्धः, लक्षणलक्ष्यचित्, नीरोगी, ब्रह्मचारी व स्वदारारतिकोऽपि वा, जलमंत्रव्रतस्त्रातः, निरभिमानी, विचक्षणः, सुरूपी, सक्रियः, वैश्यादिषु समुद्भवः, इत्यादि । " 1 इसी प्रकार प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथके प्रथम परिच्छेदमें, लोक नं० १० से १६ तक, जो प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप दिया गया है, उसमें भी“कल्याणाङ्गः, रुजा हीनः, सकलेन्द्रियः, शुभलक्षणसम्पन्नः, सौम्यरूपः, सुदर्शनः, विप्रो वा क्षत्रियो वैश्यः, विकर्मकरणोऽज्झितः, ब्रह्मचारी गृहस्थो वा, सम्यग्दृष्टिः, निः कषायः, प्रशान्तात्मा, वेश्यादिव्यसनोज्झितः दृष्टसृष्टक्रियः, विनयान्वितः शुचिः, प्रतिष्ठाविधिवित्सुधीः, महापुराणशास्त्रज्ञः, न चार्थार्थी, न च द्वेष्टि – " इत्यादि विशेषण पदोंसे प्रतिष्ठाचार्यके प्रायः वे ही समस्त विशेषण वर्णन किये गये हैं, जो कि जिनसंहितामें पूजकके और धर्मसंग्रहश्रावकाचार तथा पूजासार ग्रंथों में पूजकाचार्यके वर्णन किये हैं । यह दूसरी बात है कि किसीने किसी विशेषणको संक्षेपसे वर्णन किया और किसीने विस्तार से; किसीने एकशब्दमें वर्णन किया और किसीने अनेक शब्दों में; अथवा किसीने सामान्यतया एकरूपमें वर्णन किया और किसीने उसी विशेषणको शिष्योंको अच्छीतरह समझानेके लिये अनेक विशेषणों में वर्णन कर दिया परन्तु आशय सबका एक है, अतः सिद्ध है कि जिनसंहितामें जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तवमें प्रतिष्ठादिविधान करनेवाले पूजक अर्थात् पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका ही है । इस प्रकार यह संक्षिप्त रूपसे, आचरण सम्बधी कथनशैलीका रहस्य है । धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासार ग्रन्थमें जो साधारणनित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका ही स्वरूप लिखा गया है, उसका भी यही कारण है I यद्यपि ऊपर यह दिखलाया गया है कि उक्त दोनों ग्रंथोंमें जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया गया है वह ऊंचे दर्जेके नित्य पूजकका स्वरूप होनेसे और उसमें शूद्रको भी स्थान दिये जानेसे, शुद्ध भी ऊंचे दर्जेका नित्य पूजक हो सकता है । तथापि इतना और समझ
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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