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________________ से प्रायः यहांतक मिलता जुलता है कि एकको दूसरेका रूपान्तर कहना चाहिये । इसीप्रकार निम्नलिखित तीन श्लोकोंमें जो ऐसे पूजकके द्वारा कियेहुए पूजनका फल वर्णन किया है वह भी जिनसंहिताके श्लोक नं. ६ और 6 से बिलकुल मिलता जुलता है । यथाः"ईदृग्दोषभृदाचार्यः प्रतिष्ठां कुरुतेन चेत् । तदा राष्ट्र पुरं राज्यं राजादिः प्रलयं व्रजेत् ॥ १५३ ॥ कर्ता फलं न चाप्नोति नैव कारयिता ध्रुवम् । ततस्तल्लक्षणश्रेष्ठः पूजकाचार्य इष्यते ॥ १५४ ॥ पूर्वोक्तलक्षणैः पूर्णः पूजयेत्परमेश्वरम् । तदा दाता पुरं देशं वयं राजा च वर्द्धते ॥ १५५ ॥ अर्थात्-यदि इन दोपोंका धारक पूजकाचार्य कहींपर प्रतिष्ठा करावे, तो समझो कि देश, पुर, राज्य तथा राजादिक नाशको प्राप्त होते हैं और प्रतिष्ठा करनेवाला तथा करानेवाला ही अच्छे फलको प्राप्त दोनों नहीं होते इस लिये उपयुक्त उत्तम उत्तम लक्षणोंसे विभूपित ही पूजकाचार्य (प्रतिष्ठाचार्य ) कहा जाता है । ऊपर जो जो पूजकाचार्यके लक्षण कह आये हैं, यदि उन लक्षणोंसे युक्त पूजक परमेश्वरका पूजन (प्रतिष्ठादि विधान) करे, तो उस समय धनका खर्च करनेवाला दाता, पुर, देश तथा राजा ये सब दिनोंदिन वृद्धिको प्राप्त होते हैं। पूजासार ग्रंथमें भी, नित्य पूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक नं० १९ से २८ तक पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया गया है। इस स्वरूपमें भी पूजकाचार्यके प्रायः वही सब विशेषण दिये गये हैं जो कि धर्म. संग्रहश्रावकाचारमें वर्णित हैं और जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है । यथाः "लक्षणोद्भासी,जिनागमविशारदः, सम्यग्दर्शनसम्पन्नः, देशसंयमभूषितः, वाग्मी, श्रुतबहुग्रन्थः, अनालस्यः, ऋजुः,विनयसंयुतः, पूतात्मा, पूतवाग्वृत्तिः, १ शरीरसे सुन्दर हो. २ पापाचारी न हो. ३ सच बोलनेवाला हो तथा नीच क्रिया करके आजीविका करनेवाला न हो.
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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