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________________ भी कोई भेद नहीं होता, जैसे अष्टान्हिक पूजन और काल पूजनादिक; इस लिये पूजनकी विधि आदिकी मुख्यतासे पूजनके नित्यपूजन और प्रतिष्ठादिविधान, ऐसे भी दो भेद कहे जाते हैं और इन्हीं दोनों मेदोंकी प्रधानतासे पूजकके भी दो ही भेद वर्णन किये गये हैंएक नित्य पूजन करनेवाला जिसको पूजक कहते हैं और दूसरा प्रतिष्ठा आदि विधान करनेवाला जिसको पूजकाचार्य कहते हैं । जैसा कि पूजासार और धर्मसंग्रहश्रावकाचारके निम्नलिखित श्लोकोंसे प्रगट है:"पूजकः पूजकाचार्य इति द्वेधा स पूजकः । आद्यो नित्यार्चकोऽन्यस्तु प्रतिष्ठादिविधायकः ॥१६॥" -पूजासार । "नित्यपूजा-विधायी यः पूजकः स हि कथ्यते । द्वितीयः पूजकाचार्यः प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥ ९-१४२ ॥ -धर्ममग्रहश्रा० । चतुर्मुखादिक पूजन तथा प्रतिष्ठादि विधान सदाकाल नहीं बन सकते और न सब गृहस्थ जैनियोंसे इनका अनुष्ठान हो सकता है क्योंकि कल्पदुम पूजन चक्रवर्ति ही कर सकता है; चतुर्मूख पूजन मुकुटबद्ध राजा ही कर सकते हैं; ऐन्द्रध्वज पूजाको इन्द्रादिक देव ही रचा सकते हैं; इसी प्रकार प्रतिष्ठादि विधान भी खास खास मनुष्य ही सम्पादन करसकते हैं-इस लिये सर्व साधारण जैनियोंके वास्ते नित्यपूजनहीकी मुख्यता है । ऊपर उल्लेख किये हुए आचार्यों आदिके वाक्योंमें 'दिने दिने' और 'अन्वहं' इत्यादि शब्दों द्वारा नित्यपूजनका ही उपदेश दिया गया है। इसी नित्यपूजनपर मनुष्य, तिथंच, स्त्री, पुरुष, नीच, ऊंच, धनी, निर्धनी, व्रती, अवती, राजा, महाराजा, चक्रवर्ति और देवता, सबका समानअधिकार है अर्थात् सभी नित्यपूजन कर सकते हैं। नित्यपूजनको नित्यमह, नित्याऽर्चन और सदार्चन इत्यादि भी कहते हैं। नित्यपूजनका मुख्य स्वरूप भगवजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें इसप्रकार वर्णन किया है:
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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