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________________ , 1 1 ! / ( २४१ ) . प्र० ३८५ - ( ७ ) अप्रमत्त सयत गुणस्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - प्रमाद रहित होकर आत्म स्वरुप मे सावधान रहना । प्र० ३८६ - ( ८ ) अपूर्व करण गुणस्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - सातवे गुणस्थान से ऊपर विशुद्धता मे अपूर्व रूप से उन्नति करना । प्र० ३८७ - ( ६ ) अनिवृत्ति करण गुण स्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - आठवे गुणस्थान से अधिक उन्नति करना । ? प्र० ३८८ - (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान का स्वरुप कया है उत्तर- समस्त कपायो का उपशम अथवा क्षय होना और मात्र सज्वलन लोभ कषाय का सूक्ष्मरूप से रहना । प्र० ३८६ - (११) उपशान्त गुणस्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - कपायों का सर्वया उपशम हो जाना । प्र० ३६० - (१२) क्षीण कषाय गुणस्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - कपायो का सर्वथा क्षय हो जाना । प्र० ३९१ - (१३) सयोग केवली गुणस्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी योग की प्रवृत्ति होना । ( वे सब १८ दोष रहित होते हैं ) प्र ० ३९२ - (१४) अयोग केवली गुणस्थान का स्वरुप क्या है ? उत्तर - केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद योग की प्रवत्ति भी बन्द हो जाना । प्र० ३६३ - ये चौदह गुणस्थान किस नय से है और किस नय से नही है ? उत्तर- ये चौदह गुणस्थान अशुद्धनय से है । शुद्ध निश्चयनय के के बल से नही है । प्र० ३६४ - इस गाथा का तात्पर्य क्या है ?
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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