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________________ ( २४२ ) उत्तर-(१) जीव तो परमार्थ से चैतन्य शक्ति मात्र है । (२) वह अविनाशी होने से शुद्ध पारिणामिक भाव कहलाता है । वह भाव ही ध्येय (ध्यान करने योग्य) है। (३) किन्तु वह ध्यानरुप नहीं है, क्योकि ध्यान पर्याय विनश्वर है, और शुद्ध पारिणामिक भाव द्रव्यरुप है । अविनाशी है । इसलिये वही आश्रय करने योग्य है-यह गाथा का तात्पर्य है। प्र० ३९५-जीव गुणस्थान-मार्गणा स्वरुप हैं-इस वाक्य पर निश्चय-व्यवहार के दस प्रश्नोत्तरो को समझाइये ? उ०-प्रश्नोत्तर १९८ से २०७ तक के अनुसार स्वय प्रश्नोत्तर बनाकर उत्तर दो। सिद्धत्व-विस्सा उर्ध्व गमनत्व अधिकार णिक्कम्मा अट्ठ गुणा किचूणा चरम देह दो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पा दवहि सजुत्ता ।। १४ ।। अर्थ -(णिक्कम्मा) ज्ञानावरणादि माठ कर्मों से रहित (अट्ठगुणा) सम्यक्त्वादि अष्ट गुण सहित (चरम देहदो) अन्तिम शरीर से (किचूणा) कुछ न्यून (लोयग्गठिदा) लोक के अग्रभाग मे स्थित (णिच्चा) ध्र व-अविनाशी (उप्पादवयेहि) उत्पाद और व्यय से (सजुत्ता) सहित जीव (सिद्धा) सिद्ध है। प्र० ३९६-१४वीं गाथा मे क्या बताया है ? उत्तर-दो अधिकारो का वर्णन किया है। (१) सिद्धत्व, (२) उर्ध्वगमन । प्र० ३९७-सिद्ध अधिकार मे क्या बताया है ? उत्तर-(१) ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित । (२) सम्यक्त्वादि आठ गुणो सहित । (३) अन्तिम शरीर से कुछ न्यून-सिद्ध भगवान है।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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