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________________ ( २२६ ) है वहा पर इन सब पर्याप्तियो की शुरुआत एक साथ होती है, लेकिन पूर्णता क्रम से होती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन होने पर सर्व गुणो मे अश रुप से शुद्धता एक साथ प्रगट हो जाती है, परन्तु पूर्णता क्रम से होती है । (१) सम्यग्दर्शन चौथे गुण स्थान मे पूर्ण हो जाता है । (२) चरित्र बारहवे गुणस्थान मे पूर्ण हो जाता है । (३) ज्ञान - दर्शन - वीर्य की पूर्णता तेरहवे गुणस्थान के शुरुआत मे हो जाती है । (४) योग की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान मे होती है । ३३० - जीव पर्याप्त और अपर्याप्त होते है - यह किस अपेक्षा से कहा जा सकता है ? उत्तर- अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहा जा सकता है, परन्तु ऐसा है नही । प्र० ३३१ - अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से जीव पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं इस वाक्य पर निश्चय व्यवहार के दस प्रश्नोत्तरो को समझाइये ? उत्तर - प्रश्नोत्तर ११८ से २०७ तक के अनुसार स्वय प्रश्नोत्तर बनाकर उत्तर दो । प्र० ३३२ - जीव संज्ञी व असंज्ञी किस अपेक्षा कहा जा सकता है ? उत्तर- अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहा जा सकता है, परन्तु है नही - ऐसा जानना । प्र० ३३३ - अनुपचरित असद्भूत व्वहारनय से जीव संज्ञी - असंज्ञी है - इस वाक्य पर निश्चय व्यवहार के दस प्रश्नोत्तरो को समझाइये ? उत्तर - प्रश्नोत्तर १६८ से २०७ तक के अनुसार स्वय प्रश्नोत्तर बनाकर उत्तर दो ।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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