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________________ ( २३० ) प्र० ३३४ - पर्याप्त और अपर्याप्त मे हेय ज्ञेय - उपादेयपना किसकिस प्रकार है ? उत्तर - ( १ ) पर्याप्त और अपर्याप्त से सर्वथा भिन्न निज शुद्धात्म तत्त्व ही आश्रय करने योग्य परम उपादेय है । (२) निज शुद्धात्म तत्त्व के आश्रय से जो शुद्धि प्रगटी वह प्रगट करने योग्य उपादेय है । (३) साधक जीव के भूमिकानुसार जो राग है वह हेय है । (४) पर्याप्ति और अपर्याप्त- ये सब व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है । प्र० ३३५ - पर्याप्तियो का कर्त्ता कौन है और कौन नही है ? उत्तर - पर्याप्तियो का कर्त्ता पुद्गल है और पर्याप्ति उसका कर्म है । जीव से इनका सर्वथा कर्त्ता कर्म सम्बन्ध नही है । प्र० ३३६ - जीव समास की बारहवी गाथा का तात्पर्य क्या है ? उत्तर - पर्याप्तियो और प्राणो से सर्वथा भिन्न निज शुद्धात्म तत्त्व ही आश्रय करने योग्य पन्म उपादेय है । जीव के दूसरे भेद मग्गण गुण ठाणेहि य चउदसहि हवति तह प्रसुद्धणया । विष्णेया ससारी सव्वे हु सुद्धणया ॥ १३ ॥ अर्थ - ( तह) तथा ( ससारी) ससारी जीव ( असुद्धणया) अशुद्धनय से ( मग्गण गुण ठाणेहि ) मार्गणा स्थान और गुण स्थान की अपेक्षा से ( चउदसहि) चौदह चौदह प्रकार के ( हवति) होते है ( सुद्धणया) शुद्ध निश्चयनय से ( सब्वे) सभी ससारी जीव (हु) वास्तव मे (सुद्धा) शुद्ध (विष्णेया) जानना चाहिये । प्र० ३३७ -- बृहद द्रव्य संग्रह की इस गाथा के हैडिंग से क्या कहा है ? उत्तर- "अब शुद्ध पारिणामिक - परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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