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________________ ( २१८ ) निश्चयनय से जीव असत्यात प्रदेशी है। प्र० २६८-स्वदेह परिमाणत्व अधिकार मे हेय-ज्ञेय-उपादेयपना किस प्रकार है ? उत्तर-(१) जीव सख्या अपेक्षा लोक प्रमाण असख्यात प्रदेशी है, वह आश्रय करने योग्य परम उपादेय है। (२) उसके आश्रय से जो शुद्ध वीतरागी दशा प्रगटी, वह प्रगट करने योग्य उपादेय है। (३) शरीर व कर्म का सयोग सम्बन्ध व्यवहार से ज्ञान का ज्ञेय है। (४) जो अरु द्ध दशा है वह हेय है। प्र० २६६-दसवी गाथा का मर्म क्या है ? उत्तर-(१) जीव को देह के साथ अपने पने की मान्यता अनादि से है। इसी मान्यता से ससार मे परिभ्रमण करता हुआ दुखी रहता है। (२) इसलिये देहादिक को पृथक जानकर निर्मोहरुप निज शुद्ध आत्मा का आश्रय लेकर सुख प्रगट करना चाहिये। प्र० २७०-जीव के असंख्यात प्रदेशो मे क्या-क्या भरा हुआ है ? उ०-ज्ञान-दर्शन आदि अनन्त गुण भरे है। प्र० २७१-आत्मा को 'शून्य' क्यो कहा जाता है ? उ०-(१) रागादि विभाव परिणामो की अपेक्षा से आत्मा को शून्य कहा जाता है । (२) परन्तु बौद्धमत के समान अनन्त ज्ञानादि गुणो की अपेक्षा से शून्य नही है । प्र० २७२-आत्मा को जड़ क्यो कहा जाता है ? उत्तर-(१) बाह्य विषय वाले इन्द्रिय ज्ञान का अभाव होने की अपेक्षा से आत्मा को जड कहा जाता है । (२) परन्तु साख्यमत की मान्यता के अनुसार सर्वथा जड नही है। प्र० २७३-इस दसवी गाथा मे 'अणु' मात्र शरीर कहा हैइससे क्या तात्पर्य है ? उत्तर-(१) उत्सेध घनागुल के असख्यातवे भाग-प्रमाण लब्धि
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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