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________________ ( २१६ ) अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद का शरीर समझना । (२) परन्तु पुद्गन्न परमाणु नहीं समझना। प्र० २७४-इस गाथा मे "गुरू' शब्द से क्या समझना चाहिये ? उत्तर-(१) "गुरू गरीर" शब्द से एक हजार योजन प्रमाण महामत्स्य का शरीर समझना । (२) और मध्यम अवगाहन द्वारा मध्यम शरीर समझना। प्र० २७५-संकोच विस्तार को समझाइये ? उत्तर-जैसे दूध मे डाला गया पद्मराग अपनी कान्ति से दूध को प्रकाशित करता है। वैसे ही ससारी जीव अपने शरीर प्रमाण ही रहता है । गरम करने से दूध मे उफान आता है तब दूध के साथ पद्मरागमणि की कान्ति भी बढती जाती है। इसी प्रकार ज्यो-ज्यो शरीर पुष्ट होता है त्यो त्यो उसके साथ ही साथ आत्मा के प्रदेश भी फैल जाते है और जब शरीर दुर्बल हो जाता है तव जीव के प्रदेश भी सकुचित हो जाते है। ऐसा स्वतत्रता रुप निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। [पचास्तिकाय गाथा ३३ ] ससारित्व अधिकार पुढ विजलतेयवाड वणप्फदी विविह थावरे इंदी। विग तिग चदु पचक्खा तसजीवा होति सखादी ॥ ११ ॥ अर्थ -(पुढ विजन तेय वाड वणफदी) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति (विविह थावरे इदी) अनेक प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जीव और (सखादी) शख इत्यादि (विग तिग चदु पचक्खा) दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पॉच इन्द्रिय (तस जीवा) ये त्रस जीव है। प्र० २७६-वास्तव मे जीव कैसा है ? उत्तर-अतीन्द्रिय अमूर्त निज परमात्म स्वभावी है।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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