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________________ ( २०८ ) मृरत अर्थात- आँख-नाक-कान औदारिक आदि शरीरोप मेरी मूर्ति नही है । प्र० २१५ - विनमूरत का स्पष्ट वर्णन कहा देखे ? उत्तर - जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला तीसरे भाग के पहले पाठ मे प्रश्नोत्तर २०७ से २१७ तक देखियेगा । कर्त्ता श्रधिकार पुग्गल कम्मादीण कत्ता व्यवहारदो दु णिच्चयदो | चेदण कम्माणादा सुद्धणया सुद्ध भावाण ॥ ८ ॥ अर्थ – ( व्यवहार दो ) व्यवहारनय से ( आदा) आत्मा ( पुग्गल कम्मा दीण) पुद्गल कर्मादि का ( कत्ता) कर्ता है । (दु) और ( णिच्चयदो) अशुद्ध निश्चयनय से ( चेदण कम्माण ) चेतन भाव कर्मों का कर्ता है। तथा ( शुद्धाणया) शुद्ध निश्चयनय से ( शुद्ध भावानाम ) शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शन स्वरूप चैतन्य आदि भावो का कर्ता है। प्र० २१६ - कर्तृत्व और अकर्तृत्व क्या है ? ? उत्तर- ये सामान्य गुण हैं, क्योकि प्रत्येक द्रव्य मे पाये जाते है । प्र० २१७ - कर्तृत्व और अकर्तृत्व क्या बताता है उत्तर- (१) प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी अवस्था का कर्ता है यह कर्तव्त गुण बताता है । और ( २ ) पर की अवस्था का कर्ता नही हो सकता है - यह अकर्तृत्व गुण बताता है । प्र० २१८ - कर्तृत्व और अकर्तृत्व गुण के कारण जीव किसका कर्ता है और किसका कर्ता नहीं है ? उत्तर- (१) चैतन्य स्वभाव के कारण जीव ज्ञप्ति तथा द्रश का कर्ता है, द्रव्यकर्म - नोकर्म का कर्ता नही है । ( २ ) अज्ञान दशा मे शुभाशुभ विकारी भावो का कर्ता है, विकारी भावो के निमित्तरुप द्रव्यकर्म - नोकर्म का कर्ता सर्वथा नही है । (३) जीव हस्तादि शरीर की क्रिया का कर्ता तो कदापि नही है ।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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