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________________ व्यवहारनय से जीव की पहचान कराई। तब मै मूतिक हू-ऐसे अनुपचरित असदभूत व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिये ? उत्तर-अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से स्पर्श-रस-गध-वर्ण मूर्तिक को जीव कहा सो मूर्तिक को ही जीव नहीं मान लेना। मूर्तिक पुद्गल तो जीव के सयोग रुप है । निश्चयनय से अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पुद्गल से भिन्न है, उस ही को जीव मानना। अमूर्तिक आत्मा के सयोग से मूर्तिक को भी उपचार से जीव कहा सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से मूर्तिक वाला जीव होता ही नही-ऐसा श्रद्धान करना । प्र० २०७--मै मूतिक आत्मा हू-ऐसे अनुपरित असदभूत व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है-उस जीव को जिनवाणी मे किस-किस नाम से सम्बोधित किया है ? उत्तर-मै मूर्तिक आत्मा हूं-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है-(१) उसे पुरुषार्थ सद्धियुपाय मे "तस्य देशना नास्ति" कहा है। (२) उसे समयसार कलश ५५ मे "यह उसका अज्ञान मोह अन्धकार है, उसका सुलटना दुनिवार है"। (३) उसे प्रवचनसार गाथा ५५ मे “पद-पद पर धोखा खाता है ।" (४) उसे आत्मावलोकन मे "यह उसका हरामजादीपना है।" ऐसा कहा है। प्र० २०८-अमूर्त किसे कहते है ? उत्तर-जिनमे आठ स्पर्श, पाँच रस, दो गध और पाँच वर्ण ना हो उसे अVत कहते है। प्र० २०६-आठ स्पर्श, पाँच रस, दो गध और पाँच वर्ण का स्पष्ट खुलासा कहाँ देखे? उत्तर-जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला तीसरे भाग मे विश्व पाठ मे प्रश्नोत्तर १०६ से १८१ तक देखियेगा।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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