SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २०५ ) ने निश्चय व्यवहार दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर कि मै अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से मै मूर्तिक भी हूँ और निश्चयनय से मै अमूर्तिक आत्मा भी हूँ इस प्रकार भ्रम रुप प्रवर्तन से तो निश्चय-व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करना जिनवाणी मे नही कहा है। प्र० २०४-मै मूर्तिक हूं-ऐसा यदि अनुपचारित असद्भूत व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय का उपदेश जिनवाणी मे किसलिये दिया । मै अमूर्तिक आत्मा हूँ-एक मात्र ऐसे निश्चयनय का ही निरुपण करना था ? उतर-(१) ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है। वहाँ उत्तर दिया है कि जिस प्रकार म्लेच्छ को मलेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने को कोई समर्थ नही है। उसी प्रकार मै मूर्तिक है-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहार के बिना मै अमूर्तिक आत्मा हू-ऐसे परमार्थ का उपदेश अशक्य है-इसलिए मै मूर्तिक आत्मा हू-ऐसे अनुपर्चा त असद्भूत व्यवहार का उपदेश है । (२) मै अमूर्तिक आत्मा हूँ-ऐसे निश्चयनय का ज्ञान कराने के लिये मैं मूर्तिक आत्मा हूँ-ऐसे अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय के द्वारा उपदेश देते है। व्यवहारनय है, उसका विषय भी है, वह जानने योग्य है, परन्तु व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नहीं है। प्र० २०५–मै मूर्तिक आत्मा हू-ऐसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहार के बिना मै अमूर्तिक आत्मा हू-ऐसे निश्चयनय का उपदेश कैसे नहीं होता ? इसे समझाइये। उत्तर-निश्चयनय से आत्मा अमूर्तिक है, उसे जो नहीं पहचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहे, तब तो वे समझ नहीं पाये । इसलिये उनको अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा मूर्तिक है-इस प्रकार मूर्तिक सहित जीव की उन्हे पहचान हुई । प्र० २०६ - मै मूतिक आत्मा हू-ऐसे अनुपचारित असदसूत
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy