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________________ ( १४४ ) ही को पकडता है । और मेरे से दूर ही भागता है । में तो अनादिकाल से अविनाशी चतन्यदेव त्रिलोक द्वारा पूज्य पदार्थ हैं । उस पर काल का जोर नही चलता। इस प्रकार कौन मरता है ? और कौन जन्म लेता है ? और कौन मृत्यु का भय करे ? मुझे तो मृत्यु दीखती नही है । जो मरता है वह तो पहले ही मरा हुआ था और जीता है वह पहले ही जीता था । जो मरता है वह जीतानही और जो जीता है वह मरता नही है । किन्तु मोह दृष्टि के कारण विपरीत मालूम होता था अब मेरा मोहकर्म नष्ट हो गया इसलिये जैसा वस्तु का स्वभाव है वैसा ही मुझे दृष्टिगोचर होता है उसमे जन्म, मरण, दुख, सुख दिखाई नही पडते । अत मै अब किस बात का सोच-विचार करू ? मै तो चैतन्यशक्ति वाला शाश्वत बना रहनेवाला हूँ उसका अवलोकन करते हुये दुख का अनुभव कैसे हो ? प्र० १६ - मै कैसा हूं ? उत्तर- मै ज्ञानानन्द, स्वात्म रससे परिपूर्ण है, और शुद्धोपयोगी हुआ ज्ञानरस का आचरण करता हूँ और ज्ञानाजलि द्वारा उस अमृत का पान करता हूँ । वह अमृत मेरे स्वभाव से उत्पन्न हुआ है इसलिये वह स्वाधीन है पराधीन नही है इसलिये मुझे उसके आस्वादन मे खेद नही है । प्र० १७ - और मै कैसा ह ? मै उत्तर- मै अपने निजस्वभाव मे स्थित हैं, अकप हैं । से परिपूर्ण हूँ। मै देदीप्यमान ज्ञानज्योति युक्त अपने ही भाव मे स्थित हूँ । ज्ञानामृत निज स्व प्र० १८ - चैतन्य स्वरुप की महिमा क्या है ? उत्तर- देखो ! इस अद्भुत चैतन्य स्वरुप की महिमा ! उसके ज्ञानस्वभाव मे समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलकते हैं किन्तु वह स्वय शेयरूप नही परिणमता है और उस झलकने मे ( जानने मे ) विकल्प का अग भी नही है इसीलिये उसके निविकल्प, अतीन्द्रिय, अनुपम, बाधारहित और अखड सुख उत्पन्न होता है। ऐसा सुख ससार मे
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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