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________________ ( १४३ ) अज्ञानी पुरुष पर्यायो को नष्ट होते देखकर दुखी होते है और महादु ख एव क्लेश पाते है। प्र० १३-ज्ञानी पुरुष क्या विचार करते है ? उत्तर-किसका पुत्र? किसकी पुत्री? किसका पति? किसकी स्त्री? किसकी माता ? किसका पिता ? किसकी हवेली? किसका मन्दिर? किसका माल? किसका आभूपण और किमका वस्त्र? ये सब सामग्री झठी, विनागीक है अत ये सब उसी प्रकारसे अस्थिर है जैसे स्वप्न मे दिखा हुआ राज्य, इन्द्र जाल द्वारा बनाया हुआ तमाशा, भूतोकी माया या आकाश मे वादलो की गोभा । ये सब वस्तुयै देखने मे रमणीक लगती है किन्तु इनका स्वभाव विचारे तो कुछ भी नही है। यदि वस्तु होती तो स्थिर रहती और नष्ट क्यो होती? ऐसा जानकर मे त्रिलोक मे जितनी पुद्गल की पर्याये है उन सवसे ममत्व छोडता हूँ और अपने शरीर से भो ममत्व छोडता हूँ इसीसे इसके नष्ट होने से मेरे परिणामो मे अगमात्र भी खेद नहीं है। ये गरीरादि सामग्री चाहे जैसे परिणमे मेरा कुछ प्रयोजन नहीं है । चाहे ये कम हो, चाहे भोगो, चाहे नष्ट हो जावो मेरा कुछ भी प्रमोजन नही है। प्र० १४-मोह का स्वभाव कैसा है ? उत्तर-अहो देखो | मोह का स्वभाव ? ये सब सामग्री प्रत्यक्ष ही परवस्तु है और उसमे भी ये विनागीक है और इस भव और परभव मे दुखदाई है तो भी यह मसारी जीव इन्हे अपना समझकर रखना चाहता है। प्र० १५-ऐसा चरित्र देखकर ही ज्ञान-दृष्टि वाला जीव क्या जानता है ? उत्तर-मेरा केवल 'ज्ञान' ही अपना स्वभाव है और उसे ही मै देखता हूँ और मृत्यु का आगमन देखकर नही डरता हूँ। काल तो इस शरीरका ग्राहक है मेरा ग्राहक नही है । जैसे मक्खी,मिठाई आदि स्वादिष्ट वस्तुओ पर ही जाकर बैठती है किन्तु अग्नि पर कदाचित् भी नही बैठती है उसी प्रकार काल (मृत्यु) भी दौड-दौड कर शरीर
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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