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________________ ( नही है, ससार मे तो दुख ही है । अज्ञानी जीव इस दुख मे भी सुख का अनुमान करते है किन्तु वह सच्चा सुख नही है । १४५ ) प्र० १६ - और मै कैसा हूं ? उत्तर - मै ज्ञानादि गुणो से परिपूर्ण है और उन गुणो से एकमय हुआ अनन्त गुणो की खान बन गया है । प्र० २० - मेरा चैतन्य स्वरूप कैसा है ? उत्तर - सर्वाग मे चैतन्य ही चैतन्य उसी प्रकार व्याप्त है जिस प्रकार नमक की डली ( टुकडे मे) मे सर्वत्र क्षार रस है या जिस प्रकार शक्कर की डली मे सर्वत्र अमृतरस व्याप्त हो रहा है । वह शक्कर की डली पूर्णत अमृतमय पिंड ही है वैसे ही मैं एक ज्ञानमय पिड बना हुआ हूँ | मेरे सर्वाग मे ज्ञान ही ज्ञान है । जितना - जितना गरीर का आकार है उतना-उतना ही आकार के निमित्त मेरा आकार है किन्तु अवगाहन शक्ति द्वारा मेरा इतना बडा आकार इतने से आकार मे समा जाता है । समा जाने मे असख्यात प्रदेश भिन्न-भिन्न रहते है । उनमे सकोच विस्तार की शक्ति है ऐसा सर्वज्ञ देव ने देखा है । प्र० २१ - और मेरा निजस्वरूप कैसा है ? उत्तर-वह अनन्त आत्मीक सुख का भोक्ता है तथा एक सुख की ही मूर्ति है, वह चैतन्यमय पुरुषाकार है । जैसे मिट्टी के साचे मे एक शुद्ध चादी की प्रतिमा बनाई जाय वैसे ही इस शरीर के साचे मे आत्मा को जानना चाहिये । मिट्टी का साचा समय पाकर गल जाता है, जल जाता है, टूट जाता है किन्तु चादी की प्रतिमा ज्यो की त्यो बनी रहे वह आवरण रहित होकर सबको प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो जाय । साचे के नाश होने से प्रतिमा का नाश नही होता है वस्तु पहले से ही दो थी इसलिये एक के नाश होने से दूसरे का नाश कैसे हो ? यह तो सर्वमान्य नियम है । वैसे ही समय पाकर शरीर नष्ट होता है तो होओ मेरे स्वभाव का नाश होता नही, मै किस बात का सोच करू ? प्र० २२- मेरा चैतन्यरूप कैसा है ? उत्तर—वह आकाश के समान निर्मल है, आकाश मे किसी प्रकार
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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