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________________ ( १४२ ) उत्तर - तीन लोक मे जितने पदार्थ है वे सब अपने-अपने स्वभाव रूप परिणमन करते है । कोई किसी का कर्त्ता नही है, कोई किसी का भोक्ता नही, स्वयं ही उत्पन्न होता हे स्वय ही नष्ट होता है, स्वय ही मिलता है, स्वय ही बिछुडता है, स्वय ही गलता है तो मैं इस शरीर का कर्त्ता ओर भोक्ता कैसे ? और मेरे रखने से यह (शरीर ) कैसे रहे ? और उसी प्रकार मेरे दूर करने से यह दूर कैसे हो जाय ? मेरा इसके प्रति कोई कर्तव्य नही है, पहले झूठा ही अपना कर्त्तव्य मानता था। मै तो अनादिकाल से आकुल व्याकुल होकर महादुख पा रहा था । सो यह बात न्याय युक्त ही है। जिसका किया कुछ नही होता, वह परद्रव्य का कर्त्ता होकर उसे अपने स्वभाव के अनुसार परिणमाना चाहे तो वह दुख पावे ही पावे | प्र० ११ - सम्यग्दृष्टि किसका कर्त्ता और भोक्ता है ? उत्तर- मै तो इस ज्ञायकस्वभाव ही का कर्ता और भोक्ता हूँ और उसी का वेदन और अनुभव करता हूँ । इस शरीर के जाने से मेरा कुछ भी बिगाड नही और इसके रहने से कुछ भी सुधार नही है । यह तो प्रत्यक्ष ही काष्ठ या पापाण की तरह अचेतन द्रव्य है । काष्ठ, पाषाण और शरीर मे कोई भेद नही है। इस शरीर मे एक जानने का ही चमत्कार है सो वह मेरा स्वभाव है न कि शरीरका । शरीर तो प्रत्यक्ष ही मुर्दा है । मेरे निकल जाने पर इसे जला देते है । मेरे ही मुलाहिजे से इस शरीरका जगत द्वारा आदर किया जाता है । प्र० १२ - जगत को क्या खबर नही है कि आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न है? 1 उत्तर - आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न ही है । इसीसे जगत के लोग भ्रम के कारण ही, इस शरीरको, अपना जानकर, ममत्व करते है और इसको नष्ट होते देखकर दुखी होते है और शोक करते है । कि "हाय हाय ! मेरा पुत्र, तू कहाँ गया ? हाय हाय || मेरा पति तू कहा गया ?, हाय हाय मेरी पुत्री तू कहा गई ? हाय पिता । तू कहा गया ? हाय इष्ट भ्रात । तू कहा गया?" इस प्रकार
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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