SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२८ ) कीर्ति, निरोगी शरीरादि पुण्य के फल है । उनसे अपने को लाभ है या हानि है - ऐसा न माने (२) पर पदार्थ सर्वथा भिन्न है, ज्ञेय मात्र हैउनमे किसी को अनुकूल-प्रतिकूल मानना मात्र जीव की भूल है । ( ३ ) इसलिए पुण्य-पाप के फल मे हर्ष - शोक नही करना चाहिए । प्र० १३ - सर्व शास्त्रो का सार क्या है ? उत्तर - लाख बात की बात यही निश्चय डर लाओ । तोरि सकल जग दद-फद, नित आतम ध्याओ || || भावार्थ - जैन धर्म के समस्त उपदेश का सार यही है कि शुभाशुभ ही ससार है । उसकी रुचि छोडकर स्वोन्मुख होकर निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञान पूर्वक निज आत्मस्वरुप मे एकाग्र होना ही जीव का परम कर्तव्य है । प्र० १४ - सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके फिर क्या करना चाहिये ? उत्तर - सम्यक्चारित्र प्रगट करना चाहिए । साधक को जितनी शुद्धि होती है वह चारित्र है और अशुद्धि है वह पुण्य बन्ध का कारण होने से हेय है । अपने मे पूर्ण लीन होकर पूर्ण परमात्मदशा प्राप्त करनी चाहिये । प्र० १५ - स्वरुपाचरण चारित्र किसे कहते है ? उत्तर - जिस चारित्र के होने से समस्त पर पदार्थों से वृत्ति हट जाती है । वर्णादि तथा रागादि से चैतन्य भाव को पृथक कर लिया जाता है । अपने आत्मा मे, आत्मा के लिये, आत्मा द्वारा, अपने आत्मा का ही अनुभव होने लगता है । वहा नय, प्रमाण, निक्षेप, गुणगुणी, ज्ञान- ज्ञाता ज्ञेय, ध्यान ध्याता ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदो का किचित् विकल्प नही रहता है । इद्ध उपयोग रुप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य का ही अनुभव होने लगता है उसे स्वरुपाचरण चारित्र कहते है । प्र० : १६ - यहा स्वरुपाचरण चारित्र किसे किसे कहा है ? उत्तर- ( १ ) अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव रुप दशा को । ( २ )
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy